अचानक भाजवा को बुद्ध की तरह ग्यान प्राप्त हो गया। उसे लगा कि लाल कृष्ण आडवानी को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। लोग चौंक गए क्योंकि अभी तो लोकसभा के चुनाव में भी लगभग दो वर्ष दूर हैं। वामपंथियों की तमाम बंदर घुडकियों के बाद भी वे समर्थन वापस लेंगे ऎसा लगता नहीं। फिर भाजपा ने ऎसा क्यों किया।
वैसे आडवानी विपक्ष के नेता है और संसदीय लोकतंत्र में सरकार के पतन के बाद उसे ही प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलता है। मान लो चुनाव हो रहे होते और भाजपा सत्ता में आती तो वहीं प्रधानमंत्री होते लेकिन ऎसा भी नहीं है। फिर भी उन्हें प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। इससे तो लगता है कि विपक्ष का नेता पद भी भाजपा के लिए एक मुखौटा था जो आडवानी लगाए हुए थे। चुनाव हुए भी तो भाजपा के अपने बलबूते सत्ता में आने की संभावना नहीं है उसे मजबूरन दूसरी पार्टियों के सहयोग की जरुरत होगी तब उन सहयोगियों को आडवानी मंजूर भी होंगे अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे चुनाव के बाद संसदीय दल ही नेता का चुनाव करता है और वह सरकार बनाने का दावा राष्टूपति से करता है। बहुमत का विश्वास होने पर उसे प्रधानमंत्री बनाया जाता है। भाजपा ने यह घोषणा कर संसदीय दल की बैठक को भी बेइमानी बना दिया है। इससे उसके संसदीय परंपराओ में विश्वास का भी पता चलता है। संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं किया जाता बल्कि जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है और वे ही अपने संसदीय दल के नेता का चयन करते हैं।
अगर यह ग्यान गुजरात चुनावों को ध्यान में रखकर किया है तब भी जनता से छलावा ही है। यह इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि गुजरात में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं और आडवानी का चुनाव क्षेत्र गांधीनगर गुजरात मे ही है। तब भी यह गलत है। गुजरात की जनता के सामने मुख्यमंत्री के दावेदार को रखा जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री का बे क्या करेंगे। यह जनता से एक धोखा नहीं तो क्या है।
इस पूरे प्रहसन का हमारे लोकतंत्र में कोइ अर्थ है। इतना उतावला भाजपा क्यों दिखा रही है।
Tuesday, December 11, 2007
Saturday, December 1, 2007
महान लोकतंत्र का शोक दिवस
बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन को सच के पक्ष में बालने की सजा सुना दी गइ। सुकरात से लेकर आज तक हर सच कहने वाले को समाज के यथा स्थितिवादियों ने इसी तरह से उत्पीडित किया है। आज भी विश्व के तमाम जगहों पर सच के पक्ष में खडे लोगों को सजा देने का काम जारी है। लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शर्मिदगी का दिन है। यह शर्मिदगी इसलिए भी ज्यादा है कि यह धत कर्म उन दलों ने किया है जो खुद को धर्मनिरपेक्षता सबसे बड़ा अलम्बरदार सीपीएम और सीपीआइ ने किया है। कांग्रेस और दूसरे मध्म मार्गी दलों को क्या कहें जिनका आधार ही जाति या धर्म है। यह सब किया गया क्योंकि कुछ अल्पसंख्यकों को तसलीमा नसरीन का लेखन पसंद नहीं था। कम्युनिस्टों को कहा जाता है कि वे नास्तिक होते है लेकिन जब वोट की बात आती है तो उन्हें धर्म का महत्व समझ में आ जाता है। वामपथी बडे दावे से कहते है कि हम तीस सालों से बंगाल में सत्ता में है लेकिन किस कीमत पर कामरेड। आपके इलाके में इतना कट्टरवाद इस दौरान जनता की बैग्यानिक चेतना बढाने को आपने किया क्या। एक वामपंथी सीपीएम ने तसलीमा को कोलकाता से निकाला तो दूसरा वामपथी सीपीआइ के नेता बडी बेशर्मी से घोषणा करता है कि तसलीमा ने विवादित अंश हटा दिए हैं। क्या यही लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी है जो संविधान में किसी को दी है।
तसलीमा ने जो लिखा वह एक राजनीतिक व्यवस्था में अल्पसंख्कों की दयनीय हालत को उजागर करने वाला था। यह इतना बुरा कैसे हो गया कि एक मीहला को जान बचाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें मजबूर दिखाइ दे रही है। यह भारतीय बुद़्धजीवी वर्ग के मुंह पर सत्ता का तमाचा है कि वह एक लेखिका के सम्मान की रक्षा नहीं कर सक। याद रखना चाहिए कि जो तसलीमा के साथ हुआ है वह किसी के साथ भी हो सकता है उस वक्त कहीं कोइ नहीं होगा जो सच के पक्ष में खडा हो सके। कट्टरवाद अब आदमखोर हो चुका है अभी कइयों की जान खतरे में है।
तसलीमा ने जो लिखा वह एक राजनीतिक व्यवस्था में अल्पसंख्कों की दयनीय हालत को उजागर करने वाला था। यह इतना बुरा कैसे हो गया कि एक मीहला को जान बचाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें मजबूर दिखाइ दे रही है। यह भारतीय बुद़्धजीवी वर्ग के मुंह पर सत्ता का तमाचा है कि वह एक लेखिका के सम्मान की रक्षा नहीं कर सक। याद रखना चाहिए कि जो तसलीमा के साथ हुआ है वह किसी के साथ भी हो सकता है उस वक्त कहीं कोइ नहीं होगा जो सच के पक्ष में खडा हो सके। कट्टरवाद अब आदमखोर हो चुका है अभी कइयों की जान खतरे में है।
Wednesday, November 14, 2007
vergin land of tourism e chambal
Monday, November 12, 2007
सीपीएम का असली चेहरा नंदीग्राम
नंदीग्राम में जो कुछ हो रहा है उसके बारे में अब छन छन कर खबरें आने लगी हैं। यह भी अभी पूरा सच नहीं है। जो इन सीपीएम के चरित्र के बारे में जानते है उन्हें इस व्यवहार पर आश्चर्य नहीं होगा लेकिन बहुत से लोगों के लिए यह अजीब हो सकता है। अपनी जमीन को खोने के डर से जो लोग आंदोलन कर रहे है उन्हें सीपीएम का कैडर कैसे कुचल रहा है यह केवल नंदीग्राम में ही देखा जा सकता है। सीपीएम अपने जन्म से ही एक घनघोर अवसरवादी लोगों का जुंटा रहा है। प्रतिक्रियावाद इसकी रग रग में है। इसका कैडर किसी भी तरह से गुंडों से कम नहीं है। यही कैडर आज नंदीग्राम में तांडव कर रहा है। सत्तर के दशक में जब बंगाल के नौजवान समाज परिवर्तन के लिए लडं रहे थे तो सीपीएम का कैडर पुलिस का मुखबिर बना हुआ था। तब भी सत्ता के साथ मिलकर इन्होंने कम लोगों की हत्या नहीं करवाइ थी। ये लोग कैसे तीस साल से सत्ता में बैठे है यह इस घटना से पता चल जाता है। जनता का समर्थन इन्हें हो या न हो यह अपनी दबंगता से वोट पा ही जाते हैं। जिस तरह से ये नंदीग्राम में काम कर रहे है उसी तरह से ये पूरे राज्य में काम करते हैं। सीपीएम पूरी तरह से दोगली पार्टी है। ये जो कहती है करती ठीक उसका उल्टा है। मल्टीनेशान का विराध करने वाले नंदीग्राम में सेज के माध्यम से उसी संस्कृति का समर्थन कर रहे हैं। सुविधाभोगी राजनीति ने इनके नेताओं और कार्यकर्ताऒं को भ्रष्ट कर दिया है। रही सही कसर नए मुख्यमंत्री बुद्धदेव ने पूरी कर दी। सीपीएम ने अपने कैडर को पूरी छूट दे रखी है कि वे नंदीग्राम में किसी तरह का आतंक बना दें। इसी का परिणाम है कि वहां की नाकेबंदी कर लोगों को भूखों मारने की तैयारी कर ली गइ है। सबसे बडा ताज्जुब यह है कि पुलिस कैसे सीपीएम की पिछलग्गू बनी है और निर्दोष ग्रामीणों पर अत्याचार होते देख रही है। जिस तरह पुलिस का इस्तेमाल नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में किया वही सीपीएम बंगाल मे कर रही है। क्या कोइ फर्क है दोनों में। सारा देश बुद्धजीवी पत्रकार और संवेदनशील व्यक्ित विरोध कर रहा है लेकिन इनकी बला से। बंदा करात आ कर कैडर को जो संदेश देती है आखिर पालन तो वहीं होगा। आवश्यक है कि सीपीएम जैसी फासिस्ट पार्टी का विरोध उसी शैली में हो जैसे गुजरात के नरेंद्र मोदी का।
Sunday, October 7, 2007
दुर्गा भाभीः इन्हें भी याद रखने की जरुरत है
२००७ महिला क्रांतिकारी दुर्गावती देवी की जन्म शताब्दी का वर्ष है। आजादी की क्रांतिकारी धारा में उनको दुर्गा भाभी के नाम से जाना जाता है। वे थीं हिन्द़ुस्तान सोशलिस्ट रिपिब्लक पार्टी का घोषणापत्र लिखने वाले भगवतीचरण वोहरा की पत्नी। दुर्गा भाभी का पूरा जीवन संघर्ष का जीता जागता प्रमाण है। जन्म से ही इनका संघर्ष शुरु हो गया। इनका जन्म इलाहाबाद में ७ अक्टूबर १९०७ को हुआ था। जन्म के दस माह बाद ही उनकी माताजी का निधन हो गया। इसके कुछ समय बाद पिता ने संन्यास ग्रहण कर लिया। अब वे पूरी तरह से माता-पिता के आश्रय से वंचित हो चुकी थी। इसी दौरान रिश्तेदार उनको आगरा ले आए। यहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। यह शिक्षा किस स्कूल में हुई यह निश्चत नहीं कहा जा सकता। संभवतः यह सेंट जोंस या आगरा कालेज रहा होगा। यहीं भगवती चरण वोहरा भी अपनी पढ़ाई किया करते थे। भगवती चरण वोहरा के पूर्वज तीन पीढ़ी पहले आगरा आकर बस गए थे। बाद में भगवती चरण वोहरा लाहौर चले गए। दुर्गा देवी भी कुछ समय बाद लाहौर चलीं गईं। यहां वह भारतीय नौजवान सभा कह सक्रिय सदस्य हो गईं। तब तक भगत सिंह का ग्रुप भी पंजाब में सक्रिय हो चुका था। भारतीय नौजवान सभा का पहला काम १९२६ में सामने आया। सभा ने करतार सिंह के शहीदी दिवस पर एक बड़ा चित्र बनाया था। इसे दुर्गा भाभी और सुशाला देवी ने अपने खून से बनाया था। सुशीला देवी भगवती चरण वोहरा की दीदी थीं। करतार सिंह ने ११ को साल पहले फांसी दी गई थी तब उसकी उमर १९ साल थी। वह फांसी पर झूलने वाला सबसे कम उमर का क्रांतिकारी था। दुर्गावती की शादी भगवती चरण वोहरा से होने के बाद वे पार्टी के अंदर दुर्गा भाभी हो गईं। पंजाब में उनके सहयोगी भगत सिंह सुखदेव आदि थे। साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए दस दिसम्बर को जो पार्टी की बैठक हुई थी उसकी अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने ही की थी। इसी बैठक में पुलिस अधीक्षक जेए स्काट को मारने का फैसला लिया गया। दुर्गा भाभी ने खुद यह काम करना चाहती थीं लेकिन पार्टी ने यह काम भगत सिंह और सुखदेव को सौंपा। इस दौरान भगवती चरण के खिलाफ मेरठ षड्यंत्र में वारंट जारी हो चुका था। दुर्गा भाभी लाहौर में अपने तीन वर्ष के बच्चे के साथ रहती थीं लेकिन पार्टी में सक्रिय थीं। १७ दिसम्बर को स्काट की गफलत में सांडर्स मारा गया। इस घटना के बाद सुखदेव और भगत सिंह दुर्गा भाभी के घर पहुंचे तक तक भगत सिंह अपने बाल कटवा चुके थे। पार्टी ने इन दोनों को सुरक्षित लाहौर से निकालने की जिम्मेदारी दुर्गा भाभी को दे दी। उन्होंने अपने घर में रखे एक हजार रुपये पार्टी को दे दिए। खुद भगत सिंह की पत्नी उनके साथ कलकत्ता के सफर पर निकल गईं। यह घटना भगत सिंह के साथ जुड़ी होने के कारण सबको पता है। दुर्गा भाभी ने ही कलकत्ता में भगत सिंह के रहने की व्यवस्था की थी। भगत सिंह के एसेम्बली बम कांड के बाद उन्होंने संघर्ष जारी रखा। भगत सिंह को छुडाने के प्रयास में उनके पति की मौत हो गई। भगत सिंह की फांसी और चंद्र शेखर की शहादत के बाद पार्टी संगठन कमजोर हो गया लेकिन दुर्गा भाभी का संघर्ष जारी रहा। १९३६ में बंबई गोलीकांड में उनको फरार होना पड़ा। बाद में इस मामले में उन्हें तीन वर्ष की सजा भी हुई। आजादी के बाद उन्होंने एकाकी जीवन जिया। उन्होंने गाजियाबाद में एक स्कूल मे शिक्षा देने में ही समय लगा दिया। १९९८ में उनकी मृत्यु हो गई। आजादी का इतिहास लिखने वालों ने दुर्गा भाभी के साथ पूरा इंसाफ नहीं किया। उन्हें भी थोड़ी जगह मिलनी चाहिए। आखिर चह भी मादरे हिन्द की बेटी थीं।
Thursday, October 4, 2007
उत्तराखंड के सवा दो लाख घरों में ताले
एक छोटी सी खबर हिन्दुस्तान में छपी थी कि सरकार के सर्वेक्षण में यह पता चला कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके में दो लाख से अधिक घरों में ताले लटके हुए है। इन घरों के लोग रोजी रोटी की तलाश में अपने गांवों से निकलकर या तो महानगरों में चले गए है या जिला मुख्यालयों में आ गए है। इतनी सी खबर व्यवस्था के चेहरे से नकाब उठा देती है। इतने सारे लोग एक दिन में तो गए नहीं होंगे। यह पलायन लगातार जारी रहा होगा। कभी किसी को इस पर सोचने का विचार भी नहीं आया। देश की आजादी किसी भी क्षेत्र के लिए खुशहाली लाई हो लेकिन उत्तराखंड में तो यह पलायन ही लेकर आई। दो लाख से ज्यादा घरों के सरकार की साठ साल की नीतियों का नतीजा हैं। लोगों का राज्य बनने के बाद देहरादून में बैठे सत्ताधारियों के लिए ये चुनौती भी है कि क्या अब इन घरों के ताले खुल पाएंगे या इनमें लगतार बढ़ोत्तरी होती चली जाएगी। ये ताले आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक चुनौतियां है। सरकार ने सर्वेक्षण तो करवा दिया अब इलाज क्या होगा। सामाजिक तौर पर देखा जाए तो यह शासन व्यवस्थापकों के आंतरिक उपनिवेश की कहानी है। जिसमें देश के कुछ हिस्सों को जानबूझकर आर्थिक रुप से पिछड़ा बनाया जाता है ताकि वहां से सस्ता श्रम और माल मिलता रहे। सत्ताधारियों की नजर में ये सिर्फ मतदाता और करदाता हैं। अलबत्ता नई अर्थव्यवस्था में ये उपभोक्ता भी बन गए हैं।
Thursday, September 27, 2007
भगत सिंह ः क्रांतिकारी और विचारक भी
आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के बाद अगर किसी एक व्यक्ति ने भारतीय जनमानस को सबसे अधिक प्रभावित किया तो वह भगत सिंह ही थे। केवल तेईस साल में फांसी पर चढ़ने वाले भगत सिंह का दर्शन भारतीय संदर्भों मे बहुत व्यापक था। आज भी वे नवयुवकों के लिए आदर्श बने हैं। भगत सिंह के साथ एक गलत बात यह हुई कि उनको केवल राष्ट्वादी के तोर पर प्रचारित प्रसारित किया गया क्यों कि यही देश के शासकों को रास आता है। वास्तव में भगत सिंह एक विचारक भी थे लेकिन उनके दर्शन को आम लोगों तक सही रुप में आने ही नहीं दिया गया। भगत सिंह केवल भारत की आजादी अंग्रेजों से ही नहीं चाहते थे बल्कि देशी सामंतवाद पूंजीवाद और शोषण के हर तरीके को खत्म करने के लिए लड़ रहे थे। उन्होंने कहा भी था भारतीय जनता के कंधे पर दो जुए रखे है एक विदेशी और दूसरा देशी सामंतवाद और शोषणा का। भगत सिंह ने हमेशा विश्व की क्रांतियों का अध्ययन किया। उन्होंने ही नौजवानों के संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के साथ सोशलिस्ट शब्द को जोड़कर उसे वैचारिक आधार दिया। इसके साथ-साथ इस शब्द को अपने साथियों के सामने रखा। भगत सिंह रुस की क्रांति से प्रभावित थे और उसी तरह का समाज बनाने के लिए काम करना चाहते थे। क्रांति के लिए उनका दिया नारा इंकलाब जिन्दाबाद आज भी हर अन्याय अत्याचार का विरोध करने वाले की जुबान पर होता है। भगत सिंह का तत्कालीन राजनीतिक स्थितियों का आंकलन भी सही था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के बारे में उन्होंने कहा था कि इसकी अंतिम परिणति समझौते में होगी और उनकी शहादत के लगभग १६ साल बाद यह सही साबित हुआ। काग्रेस के आंदोलन मे जिस तरह से जमीदार पूंजीपति और संपन्न तबका जुड़ा था उसको लेकर भगत सिंह का आंकलन सही था कि इससे आम भारतीय को राहत नहीं मिलेगी। इसलिए शोषण विहीन समाज के लिए क्रांति का रास्ता चुना। असेंबली में बम फेंकने का मामला भी पूरी तरह वैचारिक आधार लिए था। यह एक हीरो बनने का शार्टकट नहीं था जैसा कई मुबंइया फिल्मों में भगत सिंह के किरदार को दिखाया गया है। यह पूरी तरह से एक वैचारिक संधर्ष था। यह कहने में फिल्म वालों को भी परहेज है। संसद मे बम फेंकने का फैसला एक बड़ी बहस का परिणाम था। इसकी प्रेरणा भगत सिंह को फ्रांस की क्रांति पर लिखी बेलां की किताब से मिली। इस किताब में लेखक ने लिखा कि उसने युवाओं मजदूरों के बीच काम किया लेकिन असफल रहा अगर मैं संसद मे बम फोड़ देता तो शायद बहरी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचा पाता। इन्ही वाक्यों से भगत सिंह का संसद पर बम फेंकने का विचार कौंधा। इसे उन्होंने स्वीकार भी किया। संसद में बम कौन फेकेगा इस पर भी पार्टी संगठन में बहस हुई। चंन्द्र शेखर भी उनको इस काम से दूर रखना चाहते थे लेकिन भगत सिंह ने कहा कि अदालत के मंच का जितना अच्छा उपयोग वे कर सकते हैं उतना कोई नहीं कर पाएगा और आखिर में भगत सिंह ने ही इस काम को अंजाम दिया। अदालत में भगत सिंह ने कहा कि वे आतंकवादी नहीं बल्कि देश की आजादी के सेनानी है। ये भगत सिंह के तर्क ही थे कि लाहौर हाईकार्ट के जज ब्रेल ने कहा कि ये वैचारिक आंदोलनकारी है। अदालत के बयानों के बाद भगत सिंह के पक्ष में जनसमर्थन आ गया। यहां तक कि कांग्रेस के अंदर भी उनको बचाने की मांग उठी। सुभाष चंद्र बोस ने तो गांधी की इच्छा के विरुद्ध जाकर भगत सिंह को फांसी देने के विरोध में जनसभा भी की। यह उनकी विचारों का ही प्रभाव था। अब भी जरुरत भगत सिंह को एक विचारक के तौर पर समझने की है। अंत में वे पंक्तियां जो भगत सिंह को पसंद थी
क़माले बुज़दिली है अपनी ही नज़रों में पस्त होनागर थोड़ी सी जुर्रत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकताउभरने ही नहीं देतीं ये बेमाइगियाँ दिल कीनहीं तो कौन सा क़तरा है जो दरिया हो नहीं सकता
Tuesday, September 18, 2007
Friday, September 14, 2007
हिन्दी के बहाने क्षेत्रीय बोली और भाषाएं
आज हिन्दी दिवस है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं विभाग आज हिन्दी का वार्षिक कर्मकांड की तरह समारोह करेंगे। यह एक मौका है कि हम हिन्दी ही नही भारतीय भाषाओं के बारे में सोचे कि आजादी के साठ साल बाद उनकी हालत क्या है। कहने को हिन्दी राष्ट् भाषा बना दी गई लेकिन साथ में अंग्रेजी को जोड़ दिया गया। दो दशक बाद ही हिन्दी विरोधी आंदोलन ने नई राजनीति को जन्म दिया। इसने भाषा के सवाल को उलझा कर रख दिया। अपनी सुविधा के लिए सत्ता ने तीन भाषा का फार्मूला दिया। इससे आम आदमी की भाषा को कोई लाभ नहीं हुआ। अलबत्ता क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाओं के लिए समस्या पैदा कर दी। वैसे भारत में कभी भी जनभाषा और राजभाषा एक नहीं रही। भाषाई आधार पर शासकों ने जनता से एक दूरी बनाए रखने की कोशिश की। जब भारत के जनमानस की भाषा पाली और प्राकृत थी तो राजभाषा संस्कृत थी। देवभाषा के तौर पर प्रतिष्ठित इस भाषा ने विशेष किस्म का आरक्षण समाज में लागू किया। उच्च पदों पर केवल वही लोग पहुंच पाते थे जो इस भाषा में पारंगत थे। मध्यकाल में जब जनभाषा हिन्दवी या अन्य क्षेत्रीय बोलियां थीं तो शासन की भाषा फारसी बनी रही। यह सांस्कृतिक उच्चता का मान कराती रही। ब्रिटिश काल में हिन्दी के एक भाषा के तौर स्थापित होने पर अंग्रेजी शासन की भाषा बन गई। यह आज तक जारी है। अंग्रेजों ने सचेतन प्रयास से अंग्रेजी को स्थापित किया। भूमंडलीयकरण के दौर में पूरे विश्च को एक रुप में ढालने की कोशिश हो रही है तो एक ही एक भाषा की जरुरत इस प्रक्रिया को हो रही है। इस प्रक्रिया ने भारतीय भाषाऒं और बोलियों संकटग्रस्त कर दिया है। हालत यह है कि हर बच्चा अंग्रेजी माध्यम में ही पारंगत होना चाहता है। ताकि वह अपने लिए अधिक रोजगार और प्रगति के अवसर पैदा कर सके। इस कोशिश में वह अपनी भाषा की ओर उसका ध्यान ही नहीं है। क्षेत्रीय भाषा और बोलियों का प्रयोग अब घरों में भी नहीं हो रहा है। इसका नतीजा यह हुआ कि भूमंडलीकरण दौर के बच्वे अपनी भाषा से वंचित हो रहे है। भाषा की जानकारी न होने पर संस्कृति की भी जानकारी नहीं हो पाती है। भले ही अभी यह स्पष्ट तौर पर दिखाई न दे रहा हो लेकिन समाज के अंदर बह रही धारा को अनुभव किया जा सकता है। अंग्रेजी के वर्चस्व ने हिन्दी को कोने में धकेला क्यों कि अवसर और प्रगित के साधन उसके पास कम थे लेकिन क्या यही हिन्दी के वर्चस्व ने क्षेत्रीय बोलियों के साथ नहीं किया। हिन्दी इलाके में बोली जाने वाली अवधी ब्रज बुंदेलखंडी भोजपुरी मगधी कुमाउंनी गढवाली राजस्थानी का क्या हुआ। हिन्दी माध्यम से शिक्षा देने के कारण इन इलाकों की नई पीढ़ी अपनी भाषा और बोली से कटती चली गई। इस भाषा और बोलियों को बोलने वालों की संख्या लगातार कम होती चली गई। हिन्दी भाषी इलाके कई बोलियों को नई पीढ़ी जानती ही नहीं है। ऐसा इसलिए हुआ कि इन भाषा और बोली जानने वालों को इसके आधार पर रोजगार नहीं मिल सकता था। सीधा सा तर्क है कि जो भाषा रोटी नहीं देगी वह कमजोर हो जाएगी। कल हिन्दी का वर्चस्व क्षेत्रीय बोलियों के लिए खतरा था अब यह खतरा दोगुना हो गया है। अब हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी भाषा भी एक बडे शत्रु के रुप में मौजूद है। हिन्दी की प्रगति के लिए आवश्यक है कि इन बोलियों के साथ एक नए सामंजस्य की व्यवस्था की जाए। अगर क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां नहीं बचेंगी तो हिन्दी कभी मजबूत नहीं हो सकती। ये सभी छोटी धाराएं है जो मिलकर हिन्दी को एक बड़ी नदी का रुप देती है। जब छोटी धाराएं ही सूख जाएंगी तो नदी का आकार कम होना ही है। जरुरत इन छोटी धाराओं को बचाने की है। हिन्दी के लिए चिंतित विद्वानों को इन बोली भाषओं के बारे में भी सोचना चाहिए। हिन्दी भले ही विज़ापन और फिल्मों की भाषा बन गई हो लेकिन वह क्मशः कमजोर होती जा रही है।
Wednesday, September 12, 2007
आगरा में डाक्टरों की हड़ताल
बारह सितम्बर को आगरा के सभी निजी नर्सिग होम अस्पताल के डाक्टरों ने हड़ताल कर दी। यह हड़ताल कहने को तो अनिश्चत कालीन है लेकिन कब तक चलेगी कहा नहीं जा सकता। इस हड़ताल ने मरीजों और डाक्टरों के रिश्तों को एक नए सिरे से देखने का मौका दिया है। यह हड़ताल इसलिए की गई कि पिछले दो महीनों में दो दर्जन से अधिक नर्सिंग होम और डाक्टरों पर हमले किए गए। वहां तोड़फोड़ की गई। हर बार यह हंगामा अस्पताल में भर्ती मरीजों के तीमारदारों ने की। मरीज के तीमारदार यह आरोप लगाते है कि डाक्टर ने सही इलाज नहीं किया। उसने पैसे पूरे लिए लेकिन इलाज में कोताही बरती। इसके विपरीत डाक्टरों का कहना है कि मरीज और उनके तीमारदार पैसे देने से बचने के लिए इस तरह के हंगामे करते है या करवाते है। दोनों पक्षों के आरोपों का आंकलन करें तो पूरे विवाद की जड़ में पैसा है। सही बात तो यह है कि हमारी लोककल्याणाकारी सरकारों के सरकार स्वास्थ्य के प्रति लगातार कम होते जा रहे हैं। अच्छी स्वास्थय सेवाएं पाना लगातार कम होता जा रहा है। सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं की कमी है। इससे भी बढ़कर सरकारी अस्पताल के डाक्टरों की संवेदनहीनता है। इनकी संवेदनहीनता का उदहारण आगरा के खंदौली क्षेत्र में हुआ गैस से झुलसे लोगों का मामला है। इनको सफदरजंग में इसलिए भर्ती नहीं किया गया कि वहां जगह नहीं थी। परिणाम यह हुआ कि कुछ बच्चों की मौत हो गई। इस पर दिल्ली हाइकोर्ट ने संज़ान लिया और अस्पताल प्रशासन को नोटिस भी जारी किया। यह मामला दिल्ली का था इसलिए सबको पता चल गया लेकिन दूरदराज के इलाकों में ऍसा होता तो किसी को पता ही नहीं चलता। बात डाक्टरों की हड़ताल की है। निजी अस्पताल के डाक्टर इस सारी स्थित के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। आज भी डाक्टरों को एक सम्मानजनक तौर पर देखा जाता है। यह माना जाता है कि वे पैसे से अधिक मानव सेवा को महत्व देंगे। हो तो इसका उल्टा ही है। निजी क्षेत्र के डाक्टरों का एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना रह गया है। इसके लिए वे कोई भी तरीका अपनाने को तैयार हैं। गांव और देहात से मरीजों को उनके नर्सिग होम तक लाने के लिए पूरा एक तंत्र काम करता है। गांव में बैठा झोलाछाप डाक्टर इनके ऍजेंट का काम करता है। वह गांव के मरीज को एक विशेष नर्सिंग होम तक पहुंचाने के एवज में अच्छी खासी रकम डाक्टर से वसूलता है। डाक्टर इस रकम को मरीज पर ही डाल देता है। इसका परिणाम यह कि इलाज की कीमत बढ़ जाती हे। इसके अलाला दवाइयों की खरीददारी टेस्ट कराने में भी जबरदस्त खेल होता है। हर मेडिकल टेस्ट और दवाइयों की खरीददारी में डाक्टरों का कमीशन निश्चित है। इन सबका पैसा कौन देगा। जाहिर है मरीज। दवा कंपनियां कितने प्रलोभन डाक्टरों को देते है यह किसी से छिपा नहीं है। इनका प्रभाव जनता में डाक्टर की नकारात्मत छवि के तौर पर बनती है। जनता को जब भी मौका मिलता है वह इनके खिलाफ हो जाती है। हालत तो तब और भी खराब हो जाते है जब निजी अस्पताल विशेषज़ तो रखते नहीं है लेकिन आपरेशन जरुर करते है। तब ये सरकारी अस्पतालो के डाक्टरों को बुलाते हैं। ये डाक्टर सरकारी अस्पताल मे सारी सुविधा होने पर भी मरीजों को निजी नर्सिग होमों की ओर धकेल देते है। बाद में खुद वहां जाकर काम करते है और बदले में बढ़िया फीस वसूलते है। इसके लिए एक बड़ी सीमा तक नर्सिंग होम के संचालक दोषी है। एक ओर तो वे सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों को भ्रष्ट करते है दूसरी ओर गरीब मरीजो पर अनावश्यक बोझ डालते हैं। डाक्टा चाहते है कि वे कितने ही पैसे ले या गलत काम करे फिर भी उनको मानव की सेवा करने वाला मानकर सम्मान मिलता रहे। ऍसा हो नहीं सकता। अगर डाक्टर वास्तव मे सम्मान चाहते है तो उनको मानवता की सेवा करने वाला ही बनना होगा पैसे के पीछे भागने वाला धनपशु नहीं। वक्त अपने गिरेबां में झांकने का है।
Monday, September 10, 2007
सेलवा जूडूम कर सच
केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश का यह कहना कि सेलवा जूडूम की पुनर्समीक्षा की जाएगी। इस व्यक्तव्य से माओवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे इस आंदोलन का सच सामने आ गया। छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने दो साल पहले माओवादियों के प्रभाव को कम करने के लिए सेलवा जूडूम शुरु किया था। इस आंदोलन की सबसे चौकाने वाली बात यह थी कि इसे कांग्रेस के सांसद महेन्द्र कर्मा चला रहे थे लेकिन भाजपा के पूरे संगठन का इसे समर्थन इसे था। माओवादियों के खिलाफ भाजपा और कांग्रेस एक हो गए थे। आदोलन का मुख्य काम बांटो और कमजोर करो था। इसने आदिवासियों में मतभेद पैदा करने का प्रयास किया। इस आदोलन को हमेशा संदेह से देखा गया। सेलवा जूडूम में गांव के प्रमुखों को यह अधिकार दिया गया कि वे अपने इलाके में संदिग्ध लोगों या कहे कि माओवादियों से सहानुभूति रखने वालों को चिन्हित करे। ताकि उस इलाके में माओवादियों का संगठन तोड़ा जा सके। सीधा सा अर्थ था कि एक विचार से लड़ने के लिए दोनों राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस ने खुद को असमर्थ पा रहे थे। इसके लिए समाज के लंपट तत्वों का सहारा लिया। इसके असफल होने की संभावना पहले से ही थी और यह अपने मकसद में यह आंदोलन पूरी तरह से असफल हुआ। इसके संचालकों ने जिन तत्वों को इसमें शामिल किया वे आदिवासियों के संपन्न तबके को शामिल किया। यह संपन्न वर्ग आदिवासियों के हितों के खिलाफ जाकर संपन्न बना था। इसकी अपने समाज में कोई प्रतिष्ठा नहीं थी। इस वर्ग ने पहला काम तो यह किया कि अपने दुश्मनों को माओवादी बताना शुरु कर दिया। दूसरा जिन लोगों ने आदोलन में शामिल होना नहीं चाहा वे भी इसके निशाने पर आ गए। दूसरी ओर सेलवा जूडूम में जाने वालों को माओवादियों ने अपना वर्ग शत्रु मान कर सफाया करना शुरु कर दिया। सीधा सा परिणाम यह हुआ कि आदिवासी दोनों संधर्षरत पक्षों के बीच फंस गए। माओवादियों से बचाने के लिए सरकार ने कई गांवों के लोगों को शिविर में रखा। लगभग पचास हजार लोगों को शिविर में रखा गया। सेलवा जूडूम माओवादियों को तो कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन सरकार की साख दांव पर लग गई। सेलवा जूडूम ने आदिवासियों का जीना कठिन कर दिया। इसका ही परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में आदिवासी आंध्रप्रदेश के सीमांत जिलों में चले गए। अब सत्ता पर बैठे लोगों को समझ में आ रहा है कि यह गलत था। सही बात यह है कि हाशिए पर फेंके गए गरीब विचत और आदिवासी जब भी अपने हक की मांग करेंगे तो सेलवा जूडूम जैसे आदोलन चलाए ही जाएंगे। होना तो यह चाहिए कि इन तबकों के बाजिब हकों को हमारा सत्ता प्रतिष्ठान स्वीकार कर ले और उन्हें भी विकास का लाभ देने का प्रयास करे।
Friday, September 7, 2007
छात्र संघों पर रोक क्यों
उत्तर प्रदेश शासन ने एक आदेश जारी कर छात्रसंघों के चुनावों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है। इसके पीछे कारण दिया गया है कि सरकार शिक्षा का वातावरण सुधारना चाहती है और विश्वविद्यालय औरमहाविद्यालयों में गुण्डागर्दी खत्म करना चाहती है। सामान्य तौर से यह दोनों काम सरकार के ही है कि वह बेहतर शिक्षा बच्चों काे दे और आम आदमी के जानमाल की रक्षा करे। सवाल यह है कि केवल छात्र संघों के चुनाव को रोकने से यह सब होम जाएगा। सरकार का यह कदम घनघोर अलोकतांत्रिक है। लोकतंत्र में आस्था रखने वाला एक सामान्य सोच का आदमी भी इसका समर्थन नहीं कर सकता है। सरकार का यह सोच कि छात्रसंघ सिर्फ गुंडागर्दी का अड्डा बन गए है गलत सोच का नतीजा है। छात्रों के भी कुछ हित है उनकी भी समस्याएं हैं। आखिर छात्रसंघ न होने पर विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रों के हक की बात कौन करेगा। समस्या केवल छात्रों की नहीं बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था का है। सारी शिक्षा व्यवस्था ही चरमरा गई है। न तो सही समय पर परीक्षा होती हैं और न परिणाम आते हैं। जितने दिन पढ़ाई होनी चाहिए उतनी कब होती है। इसके लिए भी छात्र कैसे जिम्मेदार हो गए। अगर इनको सही करने के लिए छात्र मांग करें तो इसे गुंडागर्दी कहा जाएगा। सरकार को चाहिए कि वह पहले शिक्षा का कलैन्डर तो सही कर ले फिर कोई दूसरी बात करे। कुलपति से लेकर बाबू तक की नियुक्ति तक तो सरकार अपने आदमियों की करती है। छात्र संघ के चुनाव में राजनीतिक दल खुलकर भाग लेते हैं। यह गलत भी नहीं है क्योंकि इसके बहाने छात्रों के बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर बहस तो होती है। इससे छात्रों में राजनीतिक सक्रियता तो आती है।
सही बात तो यह है कि छात्र संघ का चुनाव लोकतंत्र का पालना है। यहीं से भावी नेता इन्हीं संस्थानों से आएंगे। अगर शिक्षा क्षेत्र से नेता नहीं आने चाहिए तो सरकार बताए कि किस फील्ड से भावी नेताओं को आना चाहिए। यह आदेश शिक्षा विरोधी है। इसका परिणाम यह होगा कि समाज में किसी भी तरह से हीरो बन जाने वाला युवा नेता बन जाएगा। एक छोटे से वर्ग का नेता घटिया तरीके अपना कर ही बनेगा। गुंडागर्दी का असली कारण विचारविहीन राजनीतिक दलों का सत्ता में आना है। इनकी विचारविहीनता ही छात्रसंघों के चुनाव में दिखाई देती है।
अगर यह मान भी लिया जाय कि छात्रसंघों के नेता गुडे है तो इस देश की संसद और विधानसभाओं पर भी रोक लगनी चाहिए। वहां तो सजायाफ्ता बैठै है। कई माननीयों पर हत्या बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने का आरोप है। चुनाव जीतने के लिए कितना धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल होता है यह किसी से छिपा है क्या। छात्र राजनीति ने ही एनडी तिवारी प्रकाश करात सीताराम येचुरी प्रफुल्ल कुमार महंत लालू प्रसाद यादव अरुण जेटली विजय गोयल को संसद तक पहुचाया है। पूर्वोत्तर के कई सांसद और विधायक छात्र राजनीति की ही देन हैं। ये छात्र नेता ही थे जिन्होंने गुजरात में भ्रष्ट चिमन भाई पटेल सरकार के खिलाफ मोर्चा लिया और बाद में बिहार में भी छात्रों ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।
सही तो यह है कि सत्ता हमेशा युवाओं से डरती है। इसलिए वह यह प्रयास करती है कि युवाओं को कभी भी एकजुट न होने दो। यही कारण है कि पूरी शिक्षा व्यवस्था को इस तरह से संचालित किया जाए कि छात्र एक स्थान पर आए ही नहीं। दूरस्थ शिक्षा इसका सबसे अच्छा उदहारण है। छात्र संघों के चुनाव पर रोक का विरोध होना ही चाहिए।
सही बात तो यह है कि छात्र संघ का चुनाव लोकतंत्र का पालना है। यहीं से भावी नेता इन्हीं संस्थानों से आएंगे। अगर शिक्षा क्षेत्र से नेता नहीं आने चाहिए तो सरकार बताए कि किस फील्ड से भावी नेताओं को आना चाहिए। यह आदेश शिक्षा विरोधी है। इसका परिणाम यह होगा कि समाज में किसी भी तरह से हीरो बन जाने वाला युवा नेता बन जाएगा। एक छोटे से वर्ग का नेता घटिया तरीके अपना कर ही बनेगा। गुंडागर्दी का असली कारण विचारविहीन राजनीतिक दलों का सत्ता में आना है। इनकी विचारविहीनता ही छात्रसंघों के चुनाव में दिखाई देती है।
अगर यह मान भी लिया जाय कि छात्रसंघों के नेता गुडे है तो इस देश की संसद और विधानसभाओं पर भी रोक लगनी चाहिए। वहां तो सजायाफ्ता बैठै है। कई माननीयों पर हत्या बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने का आरोप है। चुनाव जीतने के लिए कितना धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल होता है यह किसी से छिपा है क्या। छात्र राजनीति ने ही एनडी तिवारी प्रकाश करात सीताराम येचुरी प्रफुल्ल कुमार महंत लालू प्रसाद यादव अरुण जेटली विजय गोयल को संसद तक पहुचाया है। पूर्वोत्तर के कई सांसद और विधायक छात्र राजनीति की ही देन हैं। ये छात्र नेता ही थे जिन्होंने गुजरात में भ्रष्ट चिमन भाई पटेल सरकार के खिलाफ मोर्चा लिया और बाद में बिहार में भी छात्रों ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।
सही तो यह है कि सत्ता हमेशा युवाओं से डरती है। इसलिए वह यह प्रयास करती है कि युवाओं को कभी भी एकजुट न होने दो। यही कारण है कि पूरी शिक्षा व्यवस्था को इस तरह से संचालित किया जाए कि छात्र एक स्थान पर आए ही नहीं। दूरस्थ शिक्षा इसका सबसे अच्छा उदहारण है। छात्र संघों के चुनाव पर रोक का विरोध होना ही चाहिए।
कृष्ण भक्तों से मैली हुई यमुना
कृष्ण जन्माष्टमी पर मथुरा में देश भर से कम से बीस लाख लोग आए यद्यपि मथुरा वाले तो पचास लाख लोगों के आने का दावा कर रहे हैं। आंकड़ा चाहे कुछ भी हो। इतना तो निश्चित है कि कई लाख लोग आए थे अपनी भक्ति और आस्था के कारण समाज के सबसे गरीब लोग यहां आते हैं क्योंकि इन गरीबों को लगता है कि भगवान ही कोई चमत्कार करेंगे और उनकी हालत बदल जाएगी अगर कुछ नहीं भी होगा तो अगला जन्म तो सुधर ही जाएगा। इतने लोगों के लिए प्रशासन ने कोई व्यवस्था नहीं की हुई थी। दूर दराज से आए लोगों को मथुरा में जमुना के किनारे और मंदिरों के आसपास खुले आसमान के नीचे सोए हुए देखा जा सकता था। थोड़ी सी जगह देखकर बस खड़ी कर दी और चार ईंटों को जोड़कर चूल्हा बना लिया। उस पर ही मोटी रोटियां सेक कर भूख मिटा ली। एक चादर बिछाकर सो गए। यहां तक तो सब ठीक है। यह देखकर उनकी आस्था के प्रति श्रद्धा भी होती है। असली समस्या तो तब होती है जब ये सब लोग गंदगी फैला देते है। पूरे शहर में खाने की गंदगी ही दिखाई देती है। असली गंदगी तो दूसरे दिन दिखती है जब हर झाडी और पेड़ के पीछे मानव मल ही दिखाई देता है। सारा यमुना का किनारा गंदगी से भर जाता है। हालत इतनी खराब हो जाती है कि कई हफ्तों तक वातावरण से दुर्गन्ध जाती ही नहीं है। फिर यह सारे की सारी गंदगी यमुना में ही चली जाती है। पहले से ही प्रदूषित यमुना और कितनी गंदी हो जाती है। इसकी किसी को चिंता नहीं है। न किसी को परवाह है। तीन दिन के ब्रज प्रवास के दौरान कृष्ण भक्त कितनी यमुना को गंदा कर घर चले जाते हैं।
Thursday, September 6, 2007
ब्रज में योगमाया कहां है
अभी कृष्ण जन्माष्टमी मनाई गई। स्वाभाविक है पूरे ब्रज में उल्लास था। इसके बाद गोकुल में नंदोत्सव भी हुआ। इस सारे कार्यक्रम में एक बात जबरदस्त तरीके से झकझोरती रही कि जिस बालिका के स्थान पर कृष्ण को गोकुल में रखा गया था उसका कोई भी उत्सव ब्रज के किसी स्थान पर नहीं मनाया गया। उस बालिका को योगमाया कहा गया। इसके बारे में किंबदंती है कि कंस के हाथ से छूट कर वह आकाशवाणी करती हुई चली गई। योगमाया मिर्जापुर में विध्यवासिनी के तौर पर अधिस्थापित हो गई। वहीं उनकी पूजा अर्चना होती है। कहने को गोकुल में योगमाया का एक मंदिर है और उनकी पूजा होती है। योगमाया के उत्सव न होने पर वहां के निवासियों का कहना है कि यशोदा ने कभी उसको देखा ही नहीं क्योंकि उसके जन्म के समय वह गहरी निद्रा में थी और बव्वे के तौर पर उन्होंने कृष्ण को ही देखा। कृष्ण की गतिविधियां होने के कारण उनका ही महत्व है। यदि गंभीरता से देखा जाय तो यह सारी व्यवस्था महिला विरोधी दिखाई देती है। सबसे बड़ा अपराध तो एक बालिका को उसकी मां से अलग करना ही है। यदि यह मान भी लिया जाय कि समाज के व्यापक हित में यह बलिदान आवश्यक था तब भी उस बालिका को इतिहास में उचित स्थान मिलना चाहिए। लेकिन हमारे समाज में तो महिलाओं को हमेशा ही कमतर माना गया। उनका त्याग और बलिदान किसी काम का नहीं। उन्हें तो घर परिवार और समाज के हित में ही काम करना चाहिए। योगमाया के साथ अन्याय आज की कितनी ही योगमायाओं के साथ हो रहा है। भ्रूण हत्या से लेकर दहेज के लिए कितनी ही योगमाया मारी जा रही है। कृष्ण को भगवान मानने वाले कभी उस नवजात बालिका के बारे में भी सोचत। बालिका को भगवान न मानते लेकिन एक इंसान की तरह तो उससे व्यवहार करते।
Wednesday, September 5, 2007
भुखमरी और मौत
Wednesday, August 29, 2007
आगरा का दंगा या साजिश
प्रशासन की लापरवाही कम पुलिस बल और राजनेताओं का डर सबने मिलकर आगरा का क घंटों तक अराजकता में झोंक कर रख दिया। २९ अगस्त की सुबह अभी हुई भी नहीं थी कि आगरा के सबसे ब्यस्त एमजी रोड पर दो युवकों की ट्क से कुचल कर मौत हो गई। हादसे बचकर भागने के प्रयास में चालक ने पैदल चल रहे दो और लोग कुचल गए। ये सभी लोग शबे बरात में कब्रिस्तान से लौट रहे थे। मरने वाले सभी मुस्लिम थे। इस घटना से लोगों में आक्रोश होना स्वाभाविक था। इसकी सूचना पास के थाने में दी गई लेकिन पुलिस का वही ढीला रवैया रहा। वह समय रहते घटनास्थल पर आई ही नहीं। लोंगों का गुस्सा आसमान पर आ चुका था। तब तक भीड़ में असमाजिक तत्व घुस चुके थे। उन्होंने भीड़ को उकसाना शुरु कर दिया। इसके बाद भीड़ ने सड़क पर वाहनों कों रोक कर आग लगाना शुरु कर दिया। देखते ही देखते एक दर्जन से ज्यादा ट्रकों और दूसरे वाहनों को फूंक दिया गया। पुलिस इतनी कम संख्या में थी कि वह भीड़ का काबू पाने में असफल साबित हो रही थी। भीड़ का अगला निशाना घटना स्थल पर मौजूद पुलिस वाले बने। पुलिस कर्मी थाना छोड़कर भाग गए। भीड़ का अब तक सारा गुस्सा पुलिस और प्रशासन के खिलाफ था। पुलिस उपद्रवियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा पा रही थी। क्योंकि मरने वाले एक विधायक के रिश्तेदार थे। न तो तब तब पुलिस ने लाठीचार्ज किया और न कोई दूसरा तरीका ही भीड़ को हटाने के लिए किया। विधायक का प्रशासन पर दबाव था कि भीड़ के खिलाफ कोई कठोर कदम न उठाया जाय। पथराव से बचने को पुलिस सड़क के दूसरी ओर चली गई। इधर पुलिस की हालत यह थी कि उसके आंसू गैस के गोले और बंदूके बेकार साबित हो रही थी। अब तक मुस्लिम मोहल्ले से फायरिंग होने लगी। पुलिस को अपने बचाव का कोई तरीका नजर नहीं आ रहा था। भीड़ के गुस्से से बचने के लिए पुलिस ने सांप्रदायिकता का कार्ड खेला। पुलिस के उकसावे पर ही हिंदू मोहल्ले के लोग उसके साथ एकजुट हो गए। अब यहां के लंपट तत्वों ने पथराव करना शुरु कर दिया। इन तत्वों को पुलिस का पूरा संरक्षण था। देखते ही देखते हादसा सांप्रदायिक रुप लेने लगा। धर्म स्थलों के अलावा व्यापारिक प्रतिष्टानों को भी निशाना बनाया जाने लगा।लगभग तीन घंटे तक शहर आग में झुलसता रहा। इसके बाद ही प्रशासन सक्रिय हुआ। प्रशासन ने कर्फ्यू की घोषणा का कोई असर नहीं हुआ। भीड़ सड़कों पर ही रही पुलिस के लाठीचार्ज और गोली चलाने के बाद भीड़ हट सकी। इसके बाद शहर में शांति है। सबसे आश्खर्य इस बात का है कि किसी भी राजनीतिक दल का नेता लोगों को समझाने नहीं आया। अलबत्ता शांति होने के बाद अब मेढ़क बाहर आकर टर्रा रहे हैं। एक सड़क हादसे को नेता और प्रशासन कैसे सांप्रदायिक हो जाता है यह आगरा में २९ अगस्त को देखा।
Monday, August 27, 2007
संजय के बाद सलमान
कुछ लोग कह रहे है कि बालीबुड के आजकल बुरे दिन चल रहे हैं। इसके सितारौं के सितारे गर्दिश में हैं। वास्तव में ऐसा है क्या। शायद पहली बार इस देश की अदालतों ने पैसे वालों के खिलाफ फैसला दिया है। अब तक का इतिहास तो यह ही रहा हे कि कानून को पैसे वालों ने खरीद ही लिया। बालीबुड में काम करने वाले अभिनेता तो खुद को किसी भगवान से कम नहीं समझते हैं। वे यह मानकर चलते है कि लोग हमारे दीवाने है तो हमें कुछ भी करने का अधिकार है। कानून तो उन लोगों के लिए है जो सड़क पर रहते है। बालीबुड में केवल संजय या सलमान ही नहीं है जिन्होंने कानून के साथ खिलबाड़ किया है। सलमान को सजा होने पर सबसे ज्यादा इस बार भी हमारा मीडिया ही रो रहा हे। उसका रोना तो अब खलता भी नहीं है क्यों कि उसका सारा खेल टीआरपी के लिए हे। इसलिए उसे कुछ भी करने का अधिकार दे दिया गया है। चाहे अपराध हो या भूत प्रेत सब कुछ जायज है। दुख तो हमारे सांसदों के बयानों को लेकर हो रहा है। सलमान की सजा पर कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला कहते है एक चिंकारा को मारने की सजा पांच साल कोई तुक नहीं है। उनका तो यह भी कहना है कि जेल की सजा के बदले पैसे ले लो करोड़ या दो करोड़। इसका क्या मतलब है कि अपराध करो और पैसा देकर छूट जाओ। कोई इन सांसद महोदय से पूछे कि अगर कोई गरीब चिंकारा की हत्या करता और उसके पास करोड़ रुपये न हो तो वह जेल जाएगा लेकिन सलमान को मत भेजो क्योंकि उसके पास करोडों रुपये हैं। सीधा सा बोलिए फारुक साहब कि आप पैसेवालों को सजा देने के खिलाफ हैं। संसद में क्या आप सिर्फ पैसे वालों के प्रतिनिधि है या आम आदमी के। इतना ही नहीं वे कहते हैं कि पैसा लेकर तुम जानवरों की रक्षा कर सकते हो। क्यों करें जानवरों की रक्षा ताकि कोई सलमान फिर आए और चिंकारा की हत्या कर दे। चिंकारा केचल एक जानवर नहीं हमारे इकोलाजी का हिस्सा है। उसके न होने का असर पूरी व्यवस्था पर पड़ेगा तब आप पैसे देकर कायनात को नहीं बचा सकेंगे फारुक साहब। यह हमारे सांसदों की धनपतियों के आगे नतमस्तक होने का सबूत है। इन साहब की इसी मानसिकता का परिणाम है कि आज कश्मीर बर्बाद हो गया है। वहां भी ये साहब अमीरों के साथ उनके गलत सही कामों के साथ रहे और प्रदेश जलता रहा। आप तो साहब इस देश की सर्वोच्च कानून बनाने वाली संस्था में बैठे हैं बना क्यों नहीं देते कानून कि करोड़पति को कानून तोड़ने पर जेल नहीं भेजा जाएगा केवल पैसा लिया जाएगा। जेल केवल वह आदमी जाएगा जो पैसा नहीं दे सकता है यानी गरीब। एक आर सांसद है दारा सिंह पहले निर्दलीय थे अब भाजपा के हैं। वे भी कह रहे है कि एक जानवर को मारने की सजा पांच साल गलत है। भारत में रोज कितने ही जानवर मर रहे हैं। उनको भी नहीं मालूम कि चिंकारा क्या है और उसका स्थानीय लोगों से क्या संबंध है उनको स्थानीय निवासियों की भावनाऒं की कोई चिंता नहीं। यह बात सही है कि यदि बिश्नोई समाज इतनी शिद्दत से यह मामला नहीं लड़ता तो सलमान को कभी सजा नहीं होती। इससे एक बात भी जाहिर होती है कि पर्यावरण की रक्षा केवल स्थानीय निवासी ही कर सकते है। सरकारी मशीनरी तो किसी को क्या सजा दे पाएगी क्यों कि दारा सिंह और फारुक अब्दुल्ला जैसे सांसदों के दबाच कुछ करने भी देगा। जब सांसदों की यह हालत है तो दूसरों के बारे में क्या कहा जाय।
Wednesday, August 22, 2007
कोख के कैसे कैसे सौदे
कोख के कैसे कैसे सौदे
सुबह अखबार देखे तो तीन खबरों ने ध्यान खींचा
१- दैनिक जागरणा में छपी थी लड़का पैदा करने को लड़कियों की तस्करी२-हिन्दुस्तान में फर्रुखाबाद में एक गांव खरीदी महिलाओ से आबाद ३-किराए की कोख के लिए नर्स से डाक्टर ने किया बलात्कार सुबह अखबार देखे तो तीन खबरें देखी जो कि महिला की आज की स्थिति को बताती हैं। दैनिक जागरण की खबर में बताया गया था कि पंजाब और हरियाणा की संपन्नता का दूसरा चेहरा दिखाया गया था। यह चेहरा संयुक्त राष्ट्र विकास की मानव तस्करी पर किए गए एक शोध पर आधारित है। इसे एचआईवी के संदर्भ में किया गया था। भारत के इन संपन्न राज्यों की कीमत यहां की महिलाओं के साथ बंगाल उड़ीसा और असम की गरीब महिलाएं भी चुका रही हैं। इन दोनों राज्यों में पुरुष और महिला का अनुपात खतरनाक स्तर तक गिर चुका है। हालत यह है कि अब यहां विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियों का अभाव हो गया है। यह सब इसलिए हुआ कि बड़ी संख्या में मादा भ्रूण हत्या की गई। इस इलाकों में अमीर लोगों ने तो अपने पैसे के बल पर शादी के लिए लड़कियां को पा लिया लेकिन गरीब क्या करते। मादा भ्रूण हत्या का रोग तो इस वउन्हें भी लग चुका था। इस बीच कुछ दलालों की नजर देश के गरीब इलाकों की ओर गई। जहां से गरीब लड़कियों को लाया जा सकता था। धीरे-धीरे देश के गरीब इलाकों से पंजाब और हरियाणा में लड़कियों को लाया जाने लगा। क्या विडम्बना है पहले अपनी लड़की की हत्या कर दो फिर बेटे की शादी के लिए लड़की खरीद लो। गोया कि महिलाएं न हुई जानवर हो गई। कभी इस खूंटे से बाधों कभी उस खूंटे से। लड़कियों के मांबाप भी इनको इसलिए बेच देते हैं कि कम से कम संपन्न इलाके में जा कर दो वक्त की रोटी तो खा सकेगी वरना उनके पास तो खाने के भी लाले हैं। इन इलाके मे आते ही महिला का मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न शुरु हो जाता है। इस महिला को सिर्फ इसलिए खरीदा गया होता है कि वह संतान पैदा करेगी और वह भी बेटा। संतान के लिए की गई यह शादी किसी कानूनी बलात्कार से कम नहीं है। एक महिला जिसे उस संस्कृति की कोई समझ न हो वहां की भाषा न जानती हो कैसे सामन्जस्य करेगी कल्पना की जा सकती है। उस पर भी खरीदी हुई है तो हालत किसी जानवर से ज्यादा क्या हो सकते हैं। यदि महिला के कोख में मादा भ्रूण आ जाए तो निश्चित तौर पर गिरा दिया जाएगा। एक बार बेटा पैदा करने के बाद इन महिलाओ की स्थिति और भी खराब हो जाती है। पहला खरीददार उसे दूसरे को बेच देता है क्यों कि वह तो उसे बेटा पाने के लिए लाया था और वह काम पूरा हो गया। बेटे के पैदा होते ही बच्चे को महिला से अलग कर दिया जाता है। मातृत्व का ऐसा अपमान तो इसी देश में हो सकता है। महिला को बेच कर वह अपनी लगाई रकम की कुछ भरपाई तो कर लेगा। महिला दूसरे आदमी के पास जाकर एकबार फिर बेटे को पैदा करने के काम में लग जाती है। बेटा पैदा करने के बाद उसे तीसरी जगह बेच दिया जाता है। यह क्रम चलता ही रहता है जब तक महिला मर न जाए। संपन्नता महिलाओ पर एक नए तरह से अत्याचार करना शुरु कर दिया है। लड़की होने पर उसे कोख मे मरना पड़ेगा और पैदा हो गई तो लड़का पैदा करने के लिए मरना पड़ेगा। यह है पहली तरह की कोख का सौदा। इसके बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव पड़ रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में एक नई प्रजाति बच्चों की आ गई है जिसे चंकी बच्चे कहा जा रहा है। इनकी शक्लें सामान्य पंजाबी या हरियाणावी लोगों से अलग है। मां के दूसरी संस्कृति की होने के कारण वे वहां की संस्कृति को पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पा रहे है। अभी तो कुछ नहीं लेकिन आने वाले कुछ वर्षो बाद इन इलाकों में बड़ी सामाजिक समस्या आ सकती है। दूसरा कोख का सौदा उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद का है यह काफी कुछ पंजाब वाले मामले से मिलता है। जिला मुख्यालय से पचास किमी दूर मीरगंज में सारा गांव ही बाहर से आई महिलाऒं से आबाद है लेकिन इन महिलाओं को यहां के लोग अपनी गरीबी के कारण खरीद कर लाए है न कि पंजाब की तरह महिलाओ की कमी के कारण। कभी बाढ़ के कारण अपने घरों से विस्थापित इन लोगों को जहां बसाया गया वहां इनकी हालत इतनी खराब हो गई कि कोई यहां अपनी लड़की की शादी करने को राजी नहीं हुआ तो इन्होंने भी बंश बढ़ाने के लिए कोख का सौदा कर लिया। यह चाहे मजबूरी हो या कुछ और लेकिन महिलाओं को लेकर हमारे समाज की मनोस्थिति को तो रेखांकित करता ही है।एक और कोख का सौदा हुआ यह समाज के सबसे सभ्य और सुस्कृत तरीके से किया गया। सांइस की प्रगति ने सक्षम न होने पर भी अपने बच्चे की लालसा पूरा करने का तरीका सुझा दिया है। एक नया तरीका है धाय मां जिसे अंग्रेजी में कहा जाता है सेरोग्रेटरी मदर। मामला कुछ यूं है कि गाजियाबाद के एक डाक्टर ने अपने बच्चे की चाह में साथ मे काम करने वाली नर्स से सौदा कर लिया। यह तो कोख का बड़ा सभ्य सौदा था क्यों कि न तो महिला को कोई ऐतराज था और न पुरुष को। खैर पुरुष को तो होता ही क्यों उसे तो अपनी इच्छाएं पूरी करने का साधन उपलब्ध हो गया। पूरा सौदा पचास हजार में तय हुआ। मामला तीन साल तक चला लेकिन फिर अचानक महिला और पुरुष मे मतभेद हो गए। महिला ने पुरुष पर बलात्कार का मामला दर्ज कराया तो पुरुष ने महिला पर अमानत मे खयानत का। दोनों में कौन सही है यह तो कहा नहीं जा सकता। लेकिन कुछ सवाल तो सामने आ ही गए है। अगर इस तरह से हर आदमी को पैसा देकर कोख किराए में लेने और शारीरिक संबध के आधार पर बच्वा पैदा करने की अनुमति मिल जाए तो वेश्यावृति के लिए किसी नए शब्द की रचना करनी पड़ेगी। इस संबंध से पैदा हुए बच्चे और अवैध संतानों में क्या फर्क होगा। क्या एक पुरुष को यह अधिकार है कि वह पैसा देकर महिला की कोख खरीद ले और शारीरिक संबंध बना ले। मालूम कि भारत में धाय मां को लेकर कोई कानून है या नहीं। यह एक नई घटना है। यह सही है कि इस मामले में महिला की सहमति थी लेकिन सवान तो फिर भी वही है कि कोख को किराए पर देने की। ये तीनों घटनाएं बता रही है कि समाज में कितनी ही प्रगति हुई हो और महिलाओ की स्थिति बेहतर होने के कितने ही दावे किए जाए लेकिन साइंस की प्रगति का उपकरण महिलाओं के शोषण हथियार बन रहा है। जब तक आर्थिक तौर पर समाज में असमानता होगी तब तक पुरुष कोख खरीदते रहेंगे। यह असमानता क्षेत्र के आधार पर होगी तो असम बंगाल और उडीसा से कोख खरीदी जाएगी और व्यक्ति के आधार पर होगी तो धाय मां के आधार पर खरीददारी होगी। देश की जीडीपी की दर देख कर खुश होने वाले समाज के टूटते बिखरते धरातल को भी देखे।
सुबह अखबार देखे तो तीन खबरों ने ध्यान खींचा
१- दैनिक जागरणा में छपी थी लड़का पैदा करने को लड़कियों की तस्करी२-हिन्दुस्तान में फर्रुखाबाद में एक गांव खरीदी महिलाओ से आबाद ३-किराए की कोख के लिए नर्स से डाक्टर ने किया बलात्कार सुबह अखबार देखे तो तीन खबरें देखी जो कि महिला की आज की स्थिति को बताती हैं। दैनिक जागरण की खबर में बताया गया था कि पंजाब और हरियाणा की संपन्नता का दूसरा चेहरा दिखाया गया था। यह चेहरा संयुक्त राष्ट्र विकास की मानव तस्करी पर किए गए एक शोध पर आधारित है। इसे एचआईवी के संदर्भ में किया गया था। भारत के इन संपन्न राज्यों की कीमत यहां की महिलाओं के साथ बंगाल उड़ीसा और असम की गरीब महिलाएं भी चुका रही हैं। इन दोनों राज्यों में पुरुष और महिला का अनुपात खतरनाक स्तर तक गिर चुका है। हालत यह है कि अब यहां विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियों का अभाव हो गया है। यह सब इसलिए हुआ कि बड़ी संख्या में मादा भ्रूण हत्या की गई। इस इलाकों में अमीर लोगों ने तो अपने पैसे के बल पर शादी के लिए लड़कियां को पा लिया लेकिन गरीब क्या करते। मादा भ्रूण हत्या का रोग तो इस वउन्हें भी लग चुका था। इस बीच कुछ दलालों की नजर देश के गरीब इलाकों की ओर गई। जहां से गरीब लड़कियों को लाया जा सकता था। धीरे-धीरे देश के गरीब इलाकों से पंजाब और हरियाणा में लड़कियों को लाया जाने लगा। क्या विडम्बना है पहले अपनी लड़की की हत्या कर दो फिर बेटे की शादी के लिए लड़की खरीद लो। गोया कि महिलाएं न हुई जानवर हो गई। कभी इस खूंटे से बाधों कभी उस खूंटे से। लड़कियों के मांबाप भी इनको इसलिए बेच देते हैं कि कम से कम संपन्न इलाके में जा कर दो वक्त की रोटी तो खा सकेगी वरना उनके पास तो खाने के भी लाले हैं। इन इलाके मे आते ही महिला का मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न शुरु हो जाता है। इस महिला को सिर्फ इसलिए खरीदा गया होता है कि वह संतान पैदा करेगी और वह भी बेटा। संतान के लिए की गई यह शादी किसी कानूनी बलात्कार से कम नहीं है। एक महिला जिसे उस संस्कृति की कोई समझ न हो वहां की भाषा न जानती हो कैसे सामन्जस्य करेगी कल्पना की जा सकती है। उस पर भी खरीदी हुई है तो हालत किसी जानवर से ज्यादा क्या हो सकते हैं। यदि महिला के कोख में मादा भ्रूण आ जाए तो निश्चित तौर पर गिरा दिया जाएगा। एक बार बेटा पैदा करने के बाद इन महिलाओ की स्थिति और भी खराब हो जाती है। पहला खरीददार उसे दूसरे को बेच देता है क्यों कि वह तो उसे बेटा पाने के लिए लाया था और वह काम पूरा हो गया। बेटे के पैदा होते ही बच्चे को महिला से अलग कर दिया जाता है। मातृत्व का ऐसा अपमान तो इसी देश में हो सकता है। महिला को बेच कर वह अपनी लगाई रकम की कुछ भरपाई तो कर लेगा। महिला दूसरे आदमी के पास जाकर एकबार फिर बेटे को पैदा करने के काम में लग जाती है। बेटा पैदा करने के बाद उसे तीसरी जगह बेच दिया जाता है। यह क्रम चलता ही रहता है जब तक महिला मर न जाए। संपन्नता महिलाओ पर एक नए तरह से अत्याचार करना शुरु कर दिया है। लड़की होने पर उसे कोख मे मरना पड़ेगा और पैदा हो गई तो लड़का पैदा करने के लिए मरना पड़ेगा। यह है पहली तरह की कोख का सौदा। इसके बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव पड़ रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में एक नई प्रजाति बच्चों की आ गई है जिसे चंकी बच्चे कहा जा रहा है। इनकी शक्लें सामान्य पंजाबी या हरियाणावी लोगों से अलग है। मां के दूसरी संस्कृति की होने के कारण वे वहां की संस्कृति को पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पा रहे है। अभी तो कुछ नहीं लेकिन आने वाले कुछ वर्षो बाद इन इलाकों में बड़ी सामाजिक समस्या आ सकती है। दूसरा कोख का सौदा उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद का है यह काफी कुछ पंजाब वाले मामले से मिलता है। जिला मुख्यालय से पचास किमी दूर मीरगंज में सारा गांव ही बाहर से आई महिलाऒं से आबाद है लेकिन इन महिलाओं को यहां के लोग अपनी गरीबी के कारण खरीद कर लाए है न कि पंजाब की तरह महिलाओ की कमी के कारण। कभी बाढ़ के कारण अपने घरों से विस्थापित इन लोगों को जहां बसाया गया वहां इनकी हालत इतनी खराब हो गई कि कोई यहां अपनी लड़की की शादी करने को राजी नहीं हुआ तो इन्होंने भी बंश बढ़ाने के लिए कोख का सौदा कर लिया। यह चाहे मजबूरी हो या कुछ और लेकिन महिलाओं को लेकर हमारे समाज की मनोस्थिति को तो रेखांकित करता ही है।एक और कोख का सौदा हुआ यह समाज के सबसे सभ्य और सुस्कृत तरीके से किया गया। सांइस की प्रगति ने सक्षम न होने पर भी अपने बच्चे की लालसा पूरा करने का तरीका सुझा दिया है। एक नया तरीका है धाय मां जिसे अंग्रेजी में कहा जाता है सेरोग्रेटरी मदर। मामला कुछ यूं है कि गाजियाबाद के एक डाक्टर ने अपने बच्चे की चाह में साथ मे काम करने वाली नर्स से सौदा कर लिया। यह तो कोख का बड़ा सभ्य सौदा था क्यों कि न तो महिला को कोई ऐतराज था और न पुरुष को। खैर पुरुष को तो होता ही क्यों उसे तो अपनी इच्छाएं पूरी करने का साधन उपलब्ध हो गया। पूरा सौदा पचास हजार में तय हुआ। मामला तीन साल तक चला लेकिन फिर अचानक महिला और पुरुष मे मतभेद हो गए। महिला ने पुरुष पर बलात्कार का मामला दर्ज कराया तो पुरुष ने महिला पर अमानत मे खयानत का। दोनों में कौन सही है यह तो कहा नहीं जा सकता। लेकिन कुछ सवाल तो सामने आ ही गए है। अगर इस तरह से हर आदमी को पैसा देकर कोख किराए में लेने और शारीरिक संबध के आधार पर बच्वा पैदा करने की अनुमति मिल जाए तो वेश्यावृति के लिए किसी नए शब्द की रचना करनी पड़ेगी। इस संबंध से पैदा हुए बच्चे और अवैध संतानों में क्या फर्क होगा। क्या एक पुरुष को यह अधिकार है कि वह पैसा देकर महिला की कोख खरीद ले और शारीरिक संबंध बना ले। मालूम कि भारत में धाय मां को लेकर कोई कानून है या नहीं। यह एक नई घटना है। यह सही है कि इस मामले में महिला की सहमति थी लेकिन सवान तो फिर भी वही है कि कोख को किराए पर देने की। ये तीनों घटनाएं बता रही है कि समाज में कितनी ही प्रगति हुई हो और महिलाओ की स्थिति बेहतर होने के कितने ही दावे किए जाए लेकिन साइंस की प्रगति का उपकरण महिलाओं के शोषण हथियार बन रहा है। जब तक आर्थिक तौर पर समाज में असमानता होगी तब तक पुरुष कोख खरीदते रहेंगे। यह असमानता क्षेत्र के आधार पर होगी तो असम बंगाल और उडीसा से कोख खरीदी जाएगी और व्यक्ति के आधार पर होगी तो धाय मां के आधार पर खरीददारी होगी। देश की जीडीपी की दर देख कर खुश होने वाले समाज के टूटते बिखरते धरातल को भी देखे।
Tuesday, August 21, 2007
कीर्ति चक्र की कीमत
आपको शायद यह जानकर आश्चयर्य होगा कि एक बूढ़े मां बाप के लिए कीर्तिचक्र की कीमत केचल चालीस रुपये है। यह धनरशि उनको सरकार की ओर से दी जाती है। क्योंकि उनका बेटा आज से पच्चीस साल पहले बदमाशों के साथ मुठभेड़ में मारा गया था। सरकार ने तब कहा कि वह शहीद हुआ है। उसकी इस शहादत पर सरकार ने उसको मरणोपरांत कीर्तिचक्र दिया। साथ ही शहीद के पिता को तीस और मां को दस रुपये हर माह देने की घोषणा की। बेटे को समाज की सुरक्षा के लिए कुर्वान करने वाले की कीमत सरकार ने कितनी सस्ती लगाई। चालीस रुपये में दो लोग महीना बिता सकते हैं( अब पच्चीस साल बाद शहीद के मांबाप के सामने भूखों मरने की नौबत आ चुकी है। उनकी तरह जर्जर हो चुका उनका मकान भी पिछले दिनो गिर गया। जर्रज मकान ने जर्जर दोनों बूढ़ों का साथ छोड़ दिया। एक ट्रांसपोर्ट वाले ने रहने की जगह दे रखी है। अब कब तक रहेंगे यहां। एक सरकार के बाद दूसरी सरकार आईं और गई़ लेकिन उनकी हालत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इन दोनों बूढ़ों ने अब शासन को चेतावनी दी है कि उनकी हालत पर ध्यान नहीं दिया गया तो वे आत्महत्या कर लेंगे। व्रशासन कुछ तो कर नहीं सकता। इसलिए पुलिस कप्तान ने आदेश जारी कर दिया कि उन पर नजर रखी जाय ताकि वे आत्महत्या न कर लें। यह क्या इस समाज के लिए शर्म की बात नहीं है कि उसके शहीद के परिजन भूख गरीबी के साथ अपमानजनक जीवन जिए। यदि ऐसा ही होता रहा तो कोई क्यों शहादत देगा। जो समाज अपने शहीदों को याद नहीं रखता उसका पतन तो निश्चत है।
Saturday, August 18, 2007
हवन और प्रधानमंत्री मनमोहन सिह
भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिह आजकल खतरे में है। उनके राजनीतिक विरोधी उनके खिलाफ न जाने क्या क्या नहीं कर रहे है। उनकी मृत्यु के लिए भारतीय जनता पार्टी ने हवन किया। यह कोई नहीं खुद उन्होने ही कहा है। वह भी एक पत्रिका के साथ दिए इंटरव्यू में। उनको यह सब तीन महीने पहले ही पता थी। लेकिन उन्होने इस बात को छपवाया अब क्यों कि अमेरिका से परमाणु समझौता हो चुका है। मनमोहन सिंह ने क्या टाइमिंग दी है। क्रिकेट की भाषा में गेंद सीधे सीमा रेखा के बाहर और छक्का। अमेरिका से परमाणु समझौता होते ही मनमोहन इतने महत्वपूर्ण हो गए कि उनकी मृत्यु तक की कामना की जाने लगी। लगता है अब मनमोहन की रक्षा अमेरिका को ही करनी पड़ेगी। बैसे भी यह अमेरिका का नैतित दायित्व है कि वह मनमोहन सिंह की पुख्ता सुरक्षा इतंजाम करे क्यों कि इतना अच्छे वफादार बार बार थोड़े मिलते है। अमेरिका को भाजपा से कहना चाहिए कि वह ऐसे हवन न करे। इस बात को कह कर मनमोहन ने अमेरिका कौ चेताता है कि देखो भारत में अब भी ऐसे लोग हैं जो हवन कर विरोधियों को मृत्यु का वरण करवा सकते हैं। अगर यह बात अल कायदा वालों को पता चल गई तो कितने लोगों के लिए आफत आ जाएगी। ओसामा बिन लादेन तो जार्ज बुश और जान मेजर के नाम से हवन करवा देगा। उनका क्या होगा। शायद आईपीसी और सीआरपीसी में तो कोई धारा होगी जिसमें भाजपा के नेताओं पर मुकदमा दर्ज किया जा सके लेकिन अंतरराष्टीय कानून में हवन के खिलाफ मुकदमा करने की शायद कोई धारा नहीं है। हवन को लेकर एक और भी तथ्य की ओर मनमोहन सिंह ने इशारा किया कि हे ब्राह्मणों तुम फौरन हवन का पेटेंट करवा लो वरना मैं कुछ नहीं कर पाउंगा। मैने तुमको इशारा कर दिया है। वैसे भी अमेरिका हर चीज का पेटेंट कर रहा है चाहे वह तुम्हारे घर की मिट्टी ही क्यों न हो। अगर कुछ ऊंच नींच हो गई तो मेरे से मत कहना मैं तो अमेरिका का विरोध करने में विश्वास नहीं करता। वैसे उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण तो आजकल भ्रम में है कि भाजपा की ओर देखे या बसपा की ओर खैर हवन की बात कह कर मनमोहन सिंह ने बता दिया कि उनका ब्रह्म ग्यान किसी से कम नहीं है। जब उन पर खतरा है तो सोनिया गांधी भी उनको कुछ नहीं कहेंगी। तभी तो भाजपा के हथियार से ही उसको पराजित करने की मुहिम छेड़ हुए है। कौन कहता है मनमोहन सिंह को राजनीति नहीं आती है। देखा कैसे कूंपमंडूकता के मामले में हमारे लदन स्कूल आफ इक्नोमिक्स के प्रोफेसर ने भाजपा की बत्ती गुल कर दी। धन्य है मनमोहन सिंह जी आप और हम धन्य हैं हमारे भाग कि आप सा प्रधानमंत्री हमारी जिंदगी में आया।
Thursday, August 16, 2007
रोमा कब से माओवादी हो गई।
जमीन की लड़ाई कितनी तेज और खतरनाक हो गई है। इसका पता मिर्जापुर में एक एनजीऒ चला रही रोमा के साथ हुए सरकारी कार्रवाई से पता चलता है। दस साल पहले रोमा ने इस पिछड़े इलाके के दलितो आदिवासियों और गरीब लोगों के बीच काम शुरु किया। समस्या सिर्फ यह है कि रोमा ने अन्य एनजीओ की तरह फंड लाने और उसका उपयोग लोगों में सत्ता के पक्ष में बनाए रखने के कुछ काम न कर उनकी मूलभूत समस्या को देखना शुरु कर दिया। यही गलती हो गई रोमा से उसने जमीन के मुद्दे को उठा लिया। इलाके के दबंगों को यह मंजूर नहीं क्यों कि अब तक जिन पर शासन करने की आदत थी वे अब जमीन मांगने लगे। पुलिस को भी समस्या ही थी क्यों कि कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा हो रही थी। इसके बाद उस पर पहले तो मुकदमे थोपे गए और फिर राष्टीय सुरक्षा अधिनियम में बंद कर दिया गया। कहा जा रहा है कि वह माओवादी है। हकीकत तो यह है कि वह कह रही है कि उसने तो बसपा के लिए काम किया। यह सब हो रहा है उत्तर प्रदेश में जहां दलित स्वाभिमान के नाम पर सत्ता पर आई है। लेकिन जब कोई इन वंचितों के बारे में संघर्ष करता है तो सत्ता प्रतिष्ठानों को परेशानी हो जाती है। एक ओर सभी राजनीतिक दल उद्योग पतियों को औने पौने दामों पर जमीने दे रहे है लेकिन भूमिहीनों के लिए जमीन कहीं भी नहीं है। जमीन की बात करने से ही एक एनजीओ से इतना खतरानाक हो जाता है कि शासन उसको खत्म करने पर तुल जाता है। इसके लिए माओवादी होना बताया जाता है। सत्ता गरीबों के संघर्ष को माओवाद की गाली से संबोधित कर उसको समाप्त करने की मुहिम चलाए रखे लेकिन गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ेगी तो संघर्ष के नए रुप सामने आएंगे ही। गोली और डंडे से संघर्ष नहीं रुका करते। गरीब की बात करने वाला हर कोई माओवादी नहीं होता है।
भूल गए संजय दत्त को
दो हफ्ते पहले जब संजय दत्त को सजा सुनाई तो हमारे मीडिया का विधवा विलाप हो रहा था। पूरे दिन चौबीस घंटे टेलीविजन पर हाय संजय हाय संजय होती रही। ऐसा लग रहा था कि न जाने देश पर कितनी बड़ी आफत आ गई है। अब तो फिल्म इंडस्टरी बरबाद हो जाएगी। नेता से लेकर सड़क छाप शोहदे तक परेशान हो गए। केवल दो हफ्ते बाद आज किसी को पता नहीं है कि संजय दत्त की क्या हालत है। सही सि्थित तो यह थी कि तब भी आम आदमी को ज्यादा लेना देना नहीं था कि संजय दत्त का क्या हो रहा है। केवल उन लोगों को सबसे अधिक समस्या आई थी जो खुद को कानून से बड़ा मानते थे या है। या ये वे लोग है जिनका पैसा संजय दत्त की फिल्मों में लगा है। जिस के पिता और मां उसके बाद बहिन सांसद हो उसको भी सजा यह तो बड़ा गलत है। कुछ सिनेमा के कलाकारों ने तो हस्ताक्षर अभियानन भी चलाया जिस पर उन्हें सरकारी वकील की चेतावनी सुननी भी पड़ी। आखिर वे कानून को अपने हिसाब से क्वों चलाना चाहते हैं। सबसे आश्चर्य यह है कि मीडिया दो दिन बाद चुप हो गया। शायद किसी दिन इसकी चेतना जागेगी तो यह सही बात करेगा। अभी तो सिनेमा जगत के कुछ अन्य सितारों सलमान खान फरदीन खान और भी कई लोगों पर मुकदमे चल रहे हैं। इनकी सजा पर कितना रोएगा।
Monday, August 13, 2007
हिंदी भाषियों की हत्या
असम में पिछले कुछ दिनों से हिंदी भाषी लोगों पर उल्फा का कहर टूटा हुआ है। कम ये कम बीस हिंदी बालने वालों मजदूरों की हत्या की जा चुकी है। इनमें से अधिकतर बिहारी मजदूर है। कुछ ऐसा ही कश्मीर में भी हुआ। वहां भी आतंकवादी संगठनों ने बाहरी मजदूरों को कश्मीर छोड़ने का फरमान जारी कर दिया। यह समझ में नहीं आता कि इन निरीह मजदूरों से संगठनों से क्या खतरा हो सकता है। असम में उल्फा अब किसी विचार से संचालित होने वाला संगठन न होकर लुटेरों का समूह है। इसका एकमात्र काम वसूली करना और बांग्लादेश में आरामदायक जीवन बिताना है। हिंदी भाषियों की हत्या भी इस रणानीति का हिस्सा है। असम में हिंदी भाषी मजदूर बड़ी संख्या में काम की तलाश मे वहां जाते रहे हैं। उल्फा की रणनीति यह है कि इन मजदूरों को किसी भी तरह से असम से हटा दिया जाय और उनकी जगह बांग्लादेशी गरीबों को यहां लाया जाय। ये बांग्लादेशी कम मजदूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। इसके साथ ही इन लोगों को डराना भी आसान है क्यों कि ये अवैध घुसपैठिए होते हैं इनसे वसूली भी आसानी से हो सकती है। लेकिन उल्फा की यह कार्रवाई आईएसआई की ही एक चाल है। इस तरह आईएसआई पूर्वोत्तर भारत को कमजोर करना चाहता है। सबसे आश्चर्य यह है कि उल्फा के लिए अब असमी संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। यह घटनाएं भारत के लिए खतरा होगा।
Saturday, August 11, 2007
झुकने की सीमा है कामरेड
अमेरिका के साथ परमाणु करार के बाद हमारे बामपंथी कुछ ज्यादा ही लाल दिखाइ दे रहे हैं। वे वास्तव में नाराज है या यह किसी रणनीति के तहत काम कर रहे हैं। हालत तो यह है कि अब बामपंथियो की नाराजगी किसी को चौंकाती नहीं है। जब इन्होंने भाजपा को रोकने के नाम पर यूपीए को समर्थन दिया था तो तभी यह भी निश्चित हो गया था कि इनको किन नीतियों को समर्थन देना होगा। मनमोहन सिंह का अमेरिका से लगाव उनको तब भी मालूम था। भाजपा और कांगेस पर अमेरिका का दबाव का भी इन्हें पता था। उसके बाद भी ये यूपीए के साथ गए तो अपने को ही धोखा दे रहे थे। २००२ के चुनाव के बाद दोनों राजनतिक दलों की नीतियों के विरोध में इन वामपथियों की एक तीसरे ब्लाक की स्थापना इन्होंने करनी चाहिए थी तब ये स्पष्ट तौर पर दूसरा पोल दिखाइ देते और इन नीतियों का विरोध भी हो पाता। जनता के सामने भी एक नीतियों का विकल्प होता। इन वामपंथियों को भी आम आदमी के लिए संघर्ष करना पड़ता। यह एक कठिन काम है लेकिन वामपथियों के सत्ता में भागीदारी से ज्यादा आवश्यक है। इस संघर्ष में समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके साथ होता। समझौते ने इनको पतित कर दिया है। अब इनके कार्यकर्ताओं पर हैदराबाद में गोली चलती है लेकिन ये सिर्फ विरोध के लिए मुंह खोलते है कर कुछ भी नहीं पाते। करें भी तो कैसे खुद भी नंदीगांव में किसानों पर गोलियां चलाते हैं। अब भी मौका है कि कामरेड समझौते खत्म कर संघर्ष का रास्ता चुन लें वरना इतिहास के पास एक बड़ा कूडादान है।
Thursday, August 9, 2007
तस्लीमा नसरीन
हैदराबाद में तंस्लीमा नसरीन पर वहां के मुिस्लम कट्टरपंथियो ने हमला किया उससे दो दिन पहले मुंबई में शिवसैनिकों ने एक प्रोफेसर पर हमला किया ऒर उनके मुंह पर कालिख मल दी। इन दोनों में एक ही समानता है कि इन राजनीतिक दलों के कायकर्ताऒं ने कानून को अपने हाथ में ले लिया। इनके लिए यह कोइ बड़ी बात भी नहीं है। हमारे देश के लोकतन्त्र में अब तो यह प्रचलन हो गया है कि दंगा करना राजनीतिक दलों का अधिकार है। शिवसैनिक तो तोड़फोड़ करने के लिए कुख्यात हैं। जिन लोगों ने तस्लीमा पर हमला किया वे विधायक हैं लेकिन उन्हें कानून की क्या चिंता। हम तो खुद ही कानून बनाते हैं कानून हमारा क्या कर लेगा। धर्म के नाम पर दंगा करने का व्यापक अधिकार मिला हुआ है। तस्लीमा नसरीन का कसूर सिर्फ इतना है कि उन्होंने हर जगह इन तत्वों का विरोध किया। ऐसे तत्व हर समाज में मौजूद है। वह भारत हो बांग्लादेश हो पाकिस्तान हो या इरान। किसी भी जगह पर इनको देखा जा सकता है। इनके लिए विरोधी विचार को खत्म हो जाना चाहिए। सबसे बड़ी चुनौती समाज के बुद्धीजीवी वर्ग के सामने है कि वे इसका सामना कैसे करते हैं। पत्रकार कम से कम इन लोगों का बहिष्कार तो कर ही सकते हैं।
Wednesday, August 8, 2007
नेता
आखिर क्या हो गया है हमारे कान्ग्रेसी नेताओ को जो सन्जय के जेल जाने से दुबले हुए जा रहे हौ उनको तो कानून और सन्विधान की भी चिन्ता नही है आखिर इसी अदालत ने चौदह लोगो को फासी की सजा दी है अपराध तो सबने किया है फिल्म वालों की बात तो समझ मे आती है क्यो कि वे भी खुद को कानून से बडा समझते है उन्हे यह केसे मन्जूर हो कि उनके साथ आम आदमी के जैसा सलूक हो वे तो पैसै वाले हे
Wednesday, August 1, 2007
सन्जय
हाय सन्जय दत्त को सजा हो ग इ पिछले दो दिन सै सारे मीडैया मै यही रोना हौ सब को चिन्ता है कि अब क्या होगा सिनेमा का कै करोड रुपया लगा हुआ है यहा तक कि देश का एक मन्तरी को इस पर ताज्जुब होता हौ इनके लिए कानून के शासन से ज्यादा सन्जय हौ सरकार के लोग कहते है यह उन्की निजी राय हौ लगता है कि सरकार मे सामूहिक जिम्मेदारी के कोइ मायने नही हौ सन्जय दत्त को जिस अदालत ने सजा दी है उसने क इ ओरो को भी सजा दी पर किसी को फरक नही पडा क्यो कि वे अपराधी थे
inam
तेज बहादुर पुन एक अस्लई साल का बूढा गोरखा सैनिक हौ उसने बिरिटिश सेना की ओर से दूसरे विश्व युद्द मे भाग लिया अब उसे अगरेज देश से निकल जाने को कह रहे है कहा जाएगा उसे विक्टोरिया करास मिला था अपना खुन बहाने वाले क इनाम
Saturday, June 2, 2007
समाज नही बाजार का माहानायक
उत्तर प्रदेश के चुनावों के दौरान अमिताभ बच्चन के एक विज्ञापन की खूब चर्चा हुई जिसमें उन्होंने कहा था कि यूपी में है दम क्यों कि यहां जुर्म है कम ा अब अदालत ने जो फैसला दिया है उससे जाहिर हो रहा है कि आखिर क्यों यहा जुर्म कम थाा आखिर जहां आपके लिए कानून तोडकर गलतसही काम करवाए जाए वहां की तारीफ तो करनी ही पडेगीा अब यह सोचने का विषय है कि इतने झूठ बालने वाले को महानायक किसने बनायाा जो पैसा लेकर गलत विज्ञापन करता हो, गलत तरीके से खुद को किसान बनाया हो वह किस वर्ग का महानायक हा सकता हैा
1990 में नयी अथ्ररव्यवस्था के आने के बाद यहां के बाजार में एक ऐसा आदमी चाहिए था जो स्थानीय हो और जिसके माध्यम से उनका उत्पाद बाजार में स्थापित हो सकेा इसके लिए उन्हें अमिताभ बच्चन से बेहतर आदमी कोई नहीं दिखाई दियाा बरना जिस आदमी की कंपनी 96 में दिवालिया हो गई होा िफल्ती कैरियर लगभग समाप्ति की ओर वह अचानक सारी िफल्मी दुनिया में छा जाता है और उसके चारों ओर विज्ञापनों का ढेर लग जाता हैा इसी बीच इन महाशय को शताब्दी के महानायक का दर्जा दे दिया जाता हैा आखिर दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों ने अपने कलाकारों को छोडकर भारतीय कलाकार को यह दर्जा दे दियाा सीधा सी बात है कि बाजार को इसकी जरूरत हैा यही महानायक बाजार में पेन से लेकर कार तक सब बेचने आ गएा चाहे चाकलेट में कीडे निकले और पेन दो में चलकर फेंक देना पडेा
इसके बाद तो हद तब हो गई जब महानायक बाजार में जुआ खिलाने के लिए टेलीविजन पर आगएा इस जुए बाजी मे किसी को पफायदा हो या न हो महानायक और उनको बाजार में लाने वालों की तिजोरियां भरती चलीं गईा भारतीय िफल्म उद़योग को जितना नुकसान अमिताभ बच्चन के महानाय होने ने पहुंचाया है उतना किसी ने नहींा इसने सारे स्रोतों केा एक ओर की ओर जाने को विवश कर दियाा
इस महानायक से बाजार को कितना ही फायदा हुआ हो लेकिन समाज को तो उन्होंने मूल्य विहीनता की ओर ही घकेला हैा बरना क्या कारण है कि किसान बनने के लिए महानायक को झूठे प्रमाणपख् की जरूरत पड रही हैा जो आदमी इस तहर का व्यवहार कर रहा हो उसे महानायक माना जाय कि नहीं यह पाठकों पर ही छोडा जाना चाहिएा
1990 में नयी अथ्ररव्यवस्था के आने के बाद यहां के बाजार में एक ऐसा आदमी चाहिए था जो स्थानीय हो और जिसके माध्यम से उनका उत्पाद बाजार में स्थापित हो सकेा इसके लिए उन्हें अमिताभ बच्चन से बेहतर आदमी कोई नहीं दिखाई दियाा बरना जिस आदमी की कंपनी 96 में दिवालिया हो गई होा िफल्ती कैरियर लगभग समाप्ति की ओर वह अचानक सारी िफल्मी दुनिया में छा जाता है और उसके चारों ओर विज्ञापनों का ढेर लग जाता हैा इसी बीच इन महाशय को शताब्दी के महानायक का दर्जा दे दिया जाता हैा आखिर दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों ने अपने कलाकारों को छोडकर भारतीय कलाकार को यह दर्जा दे दियाा सीधा सी बात है कि बाजार को इसकी जरूरत हैा यही महानायक बाजार में पेन से लेकर कार तक सब बेचने आ गएा चाहे चाकलेट में कीडे निकले और पेन दो में चलकर फेंक देना पडेा
इसके बाद तो हद तब हो गई जब महानायक बाजार में जुआ खिलाने के लिए टेलीविजन पर आगएा इस जुए बाजी मे किसी को पफायदा हो या न हो महानायक और उनको बाजार में लाने वालों की तिजोरियां भरती चलीं गईा भारतीय िफल्म उद़योग को जितना नुकसान अमिताभ बच्चन के महानाय होने ने पहुंचाया है उतना किसी ने नहींा इसने सारे स्रोतों केा एक ओर की ओर जाने को विवश कर दियाा
इस महानायक से बाजार को कितना ही फायदा हुआ हो लेकिन समाज को तो उन्होंने मूल्य विहीनता की ओर ही घकेला हैा बरना क्या कारण है कि किसान बनने के लिए महानायक को झूठे प्रमाणपख् की जरूरत पड रही हैा जो आदमी इस तहर का व्यवहार कर रहा हो उसे महानायक माना जाय कि नहीं यह पाठकों पर ही छोडा जाना चाहिएा
Monday, April 30, 2007
labour
no to globalisation of labour. why?
today is may day. some labour come out with red flags. but where is our new age labours. i mean, those who work if BPO.
today is may day. some labour come out with red flags. but where is our new age labours. i mean, those who work if BPO.
Friday, April 27, 2007
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