Wednesday, August 29, 2007

आगरा का दंगा या साजिश

प्रशासन की लापरवाही कम पुलिस बल और राजनेताओं का डर सबने मिलकर आगरा का क‌ घंटों तक अराजकता में झोंक कर रख दिया। २९ अगस्त की सुबह अभी हुई भी नहीं थी कि आगरा के सबसे ब्यस्त एमजी रोड पर दो युवकों की ट्क से कुचल कर मौत हो गई। हादसे बचकर भागने के प्रयास में चालक ने पैदल चल रहे दो और लोग कुचल गए। ये सभी लोग शबे बरात में कब्रिस्तान से लौट रहे थे। मरने वाले सभी मुस्लिम थे। इस घटना से लोगों में आक्रोश होना स्वाभाविक था। इसकी सूचना पास के थाने में दी गई लेकिन पुलिस का वही ढीला रवैया रहा। वह समय रहते घटनास्थल पर आई ही नहीं। लोंगों का गुस्सा आसमान पर आ चुका था। तब तक भीड़ में असमाजिक तत्व घुस चुके थे। उन्होंने भीड़ को उकसाना शुरु कर दिया। इसके बाद भीड़ ने सड़क पर वाहनों कों रोक कर आग लगाना शुरु कर दिया। देखते ही देखते एक दर्जन से ज्यादा ट्रकों और दूसरे वाहनों को फूंक दिया गया। पुलिस इतनी कम संख्या में थी कि वह भीड़ का काबू पाने में असफल साबित हो रही थी। भीड़ का अगला निशाना घटना स्थल पर मौजूद पुलिस वाले बने। पुलिस कर्मी थाना छोड़कर भाग गए। भीड़ का अब तक सारा गुस्सा पुलिस और प्रशासन के खिलाफ था। पुलिस उपद्रवियों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा पा रही थी। क्योंकि मरने वाले एक विधायक के रिश्तेदार थे। न तो तब तब पुलिस ने लाठीचार्ज किया और न कोई दूसरा तरीका ही भीड़ को हटाने के लिए किया। विधायक का प्रशासन पर दबाव था कि भीड़ के खिलाफ कोई कठोर कदम न उठाया जाय। पथराव से बचने को पुलिस सड़क के दूसरी ओर चली गई। इधर पुलिस की हालत यह थी कि उसके आंसू गैस के गोले और बंदूके बेकार साबित हो रही थी। अब तक मुस्लिम मोहल्ले से फायरिंग होने लगी। पुलिस को अपने बचाव का कोई तरीका नजर नहीं आ रहा था। भीड़ के गुस्से से बचने के लिए पुलिस ने सांप्रदायिकता का कार्ड खेला। पुलिस के उकसावे पर ही हिंदू मोहल्ले के लोग उसके साथ एकजुट हो गए। अब यहां के लंपट तत्वों ने पथराव करना शुरु कर दिया। इन तत्वों को पुलिस का पूरा संर‌क्षण था। देखते ही देखते हादसा सांप्रदायिक रुप लेने लगा। धर्म स्थलों के अलावा व्यापारिक प्रतिष्टानों को भी निशाना बनाया जाने लगा।लगभग तीन घंटे तक शहर आग में झुलसता रहा। इसके बाद ही प्रशासन सक्रिय हुआ। प्रशासन ने कर्फ्यू की घोषणा का को‌‌ई असर नहीं हुआ। भीड़ सड़कों पर ही रही पुलिस के लाठीचार्ज और गोली चलाने के बाद भीड़ हट सकी। इसके बाद शहर में शांति है। सबसे आश्खर्य इस बात का है कि किसी भी राजनीतिक दल का नेता लोगों को समझाने नहीं आया। अलबत्ता शांति होने के बाद अब मेढ़क बाहर आकर टर्रा रहे हैं। एक सड़क हादसे को नेता और प्रशासन कैसे सांप्रदायिक हो जाता है यह आगरा में २९ अगस्त को देखा।

जलता आगरा














































Monday, August 27, 2007

संजय के बाद सलमान

कुछ लोग कह रहे है कि बालीबुड के आजकल बुरे दिन चल रहे हैं। इसके सितारौं के सितारे गर्दिश में हैं। वास्तव में ऐसा है क्या। शायद पहली बार इस देश की अदालतों ने पैसे वालों के खिलाफ फैसला दिया है। अब तक का इतिहास तो यह ही रहा हे कि कानून को पैसे वालों ने खरीद ही लिया। बालीबुड में काम करने वाले अभिनेता तो खुद को किसी भगवान से कम नहीं समझते हैं। वे यह मानकर चलते है कि लोग हमारे दीवाने है तो हमें कुछ भी करने का अधिकार है। कानून तो उन लोगों के लिए है जो सड़क पर रहते है। बालीबुड में केवल संजय या सलमान ही नहीं है जिन्होंने कानून के साथ खिलबाड़ किया है। सलमान को सजा होने पर सबसे ज्यादा इस बार भी हमारा मीडिया ही रो रहा हे। उसका रोना तो अब खलता भी नहीं है क्यों कि उसका सारा खेल टीआरपी के लिए हे। इसलिए उसे कुछ भी करने का अधिकार दे दिया गया है। चाहे अपराध हो या भूत प्रेत सब कुछ जायज है। दुख तो हमारे सांसदों के बयानों को लेकर हो रहा है। सलमान की सजा पर कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला कहते है एक चिंकारा को मारने की सजा पांच साल कोई तुक नहीं है। उनका तो यह भी कहना है कि जेल की सजा के बदले पैसे ले लो करोड़ या दो करोड़। इसका क्या मतलब है कि अपराध करो और पैसा देकर छूट जाओ। कोई इन सांसद महोदय से पूछे कि अगर कोई गरीब चिंकारा की हत्या करता और उसके पास करोड़ रुपये न हो तो वह जेल जाएगा लेकिन सलमान को मत भेजो क्योंकि उसके पास करोडों रुपये हैं। सीधा सा बोलिए फारुक साहब कि आप पैसेवालों को सजा देने के खिलाफ हैं। संसद में क्या आप सिर्फ पैसे वालों के प्रतिनिधि है या आम आदमी के। इतना ही नहीं वे कहते हैं कि पैसा लेकर तुम जानवरों की रक्षा कर सकते हो। क्यों करें जानवरों की रक्षा ताकि कोई सलमान फिर आए और चिंकारा की हत्या कर दे। चिंकारा केचल एक जानवर नहीं हमारे इकोलाजी का हिस्सा है। उसके न होने का असर पूरी व्यवस्था पर पड़ेगा तब आप पैसे देकर कायनात को नहीं बचा सकेंगे फारुक साहब। यह हमारे सांसदों की धनपतियों के आगे नतमस्तक होने का सबूत है। इन साहब की इसी मानसिकता का परिणाम है कि आज कश्मीर बर्बाद हो गया है। वहां भी ये साहब अमीरों के साथ उनके गलत सही कामों के साथ रहे और प्रदेश जलता रहा। आप तो साहब इस देश की सर्वोच्च कानून बनाने वाली संस्था में बैठे हैं बना क्यों नहीं देते कानून कि करोड़पति को कानून तोड़ने पर जेल नहीं भेजा जाएगा केवल पैसा लिया जाएगा। जेल केवल वह आदमी जाएगा जो पैसा नहीं दे सकता है यानी गरीब। एक आर सांसद है दारा सिंह पहले निर्दलीय थे अब भाजपा के हैं। वे भी कह रहे है कि एक जानवर को मारने की सजा पांच साल गलत है। भारत में रोज कितने ही जानवर मर रहे हैं। उनको भी नहीं मालूम कि चिंकारा क्या है और उसका स्थानीय लोगों से क्या संबंध है उनको स्थानीय निवासियों की भावनाऒं की कोई चिंता नहीं। यह बात सही है कि यदि बिश्नोई समाज इतनी शिद्दत से यह मामला नहीं लड़ता तो सलमान को कभी सजा नहीं होती। इससे एक बात भी जाहिर होती है कि पर्यावरण की रक्षा केवल स्थानीय निवासी ही कर सकते है। सरकारी मशीनरी तो किसी को क्या सजा दे पाएगी क्यों कि दारा सिंह और फारुक अब्दुल्ला जैसे सांसदों के दबाच कुछ करने भी देगा। जब सांसदों की यह हालत है तो दूसरों के बारे में क्या कहा जाय।

Wednesday, August 22, 2007

कोख के कैसे कैसे सौदे

कोख के कैसे कैसे सौदे
सुबह अखबार देखे तो तीन खबरों ने ध्यान खींचा
१- दैनिक जागरणा में छपी थी लड़का पैदा करने को लड़कियों की तस्करी२-हिन्दुस्तान में फर्रुखाबाद में एक गांव खरीदी महिलाओ से आबाद ३-किराए की कोख के लिए नर्स से डाक्टर ने किया बलात्कार सुबह अखबार देखे तो तीन खबरें देखी जो कि महिला की आज की स्थिति को बताती हैं। दैनिक जागरण की खबर में बताया गया था कि पंजाब और हरियाणा की संपन्नता का दूसरा चेहरा दिखाया गया था। यह चेहरा संयुक्त राष्ट्र विकास की मानव तस्करी पर किए गए एक शोध पर आधारित है। इसे एचआईवी के संदर्भ में किया गया था। भारत के इन संपन्न राज्यों की कीमत यहां की महिलाओं के साथ बंगाल उड़ीसा और असम की गरीब महिलाएं भी चुका रही हैं। इन दोनों राज्यों में पुरुष और महिला का अनुपात खतरनाक स्तर तक गिर चुका है। हालत यह है कि अब यहां विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियों का अभाव हो गया है। यह सब इसलिए हुआ कि बड़ी संख्या में मादा भ्रूण हत्या की गई। इस इलाकों में अमीर लोगों ने तो अपने पैसे के बल पर शादी के लिए लड़कियां को पा लिया लेकिन गरीब क्या करते। मादा भ्रूण हत्या का रोग तो इस वउन्हें भी लग चुका था। इस बीच कुछ दलालों की नजर देश के गरीब इलाकों की ओर गई। जहां से गरीब लड़कियों को लाया जा सकता था। धीरे-धीरे देश के गरीब इलाकों से पंजाब और हरियाणा में लड़कियों को लाया जाने लगा। क्या विडम्बना है पहले अपनी लड़की की हत्या कर दो फिर बेटे की शादी के लिए लड़की खरीद लो। गोया कि महिलाएं न हुई जानवर हो गई। कभी इस खूंटे से बाधों कभी उस खूंटे से। लड़कियों के मांबाप भी इनको इसलिए बेच देते हैं कि कम से कम संपन्न इलाके में जा कर दो वक्त की रोटी तो खा सकेगी वरना उनके पास तो खाने के भी लाले हैं। इन इलाके मे आते ही महिला का मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न शुरु हो जाता है। इस महिला को सिर्फ इसलिए खरीदा गया होता है कि वह संतान पैदा करेगी और वह भी बेटा। संतान के लिए की गई यह शादी किसी कानूनी बलात्कार से कम नहीं है। एक महिला जिसे उस संस्कृति की कोई समझ न हो वहां की भाषा न जानती हो कैसे सामन्जस्य करेगी कल्पना की जा सकती है। उस पर भी खरीदी हुई है तो हालत किसी जानवर से ज्यादा क्या हो सकते हैं। यदि महिला के कोख में मादा भ्रूण आ जाए तो निश्चित तौर पर गिरा दिया जाएगा। एक बार बेटा पैदा करने के बाद इन महिलाओ की स्थिति और भी खराब हो जाती है। पहला खरीददार उसे दूसरे को बेच देता है क्यों कि वह तो उसे बेटा पाने के लिए लाया था और वह काम पूरा हो गया। बेटे के पैदा होते ही बच्चे को महिला से अलग कर दिया जाता है। मातृत्व का ऐसा अपमान तो इसी देश में हो सकता है। महिला को बेच कर वह अपनी लगाई रकम की कुछ भरपाई तो कर लेगा। महिला दूसरे आदमी के पास जाकर एकबार फिर बेटे को पैदा करने के काम में लग जाती है। बेटा पैदा करने के बाद उसे तीसरी जगह बेच दिया जाता है। यह क्रम चलता ही रहता है जब तक महिला मर न जाए। संपन्नता महिलाओ पर एक नए तरह से अत्याचार करना शुरु कर दिया है। लड़की होने पर उसे कोख मे मरना पड़ेगा और पैदा हो गई तो लड़का पैदा करने के लिए मरना पड़ेगा। यह है पहली तरह की कोख का सौदा। इसके बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव पड़ रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में एक नई प्रजाति बच्चों की आ गई है जिसे चंकी बच्चे कहा जा रहा है। इनकी शक्लें सामान्य पंजाबी या हरियाणावी लोगों से अलग है। मां के दूसरी संस्कृति की होने के कारण वे वहां की संस्कृति को पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पा रहे है। अभी तो कुछ नहीं लेकिन आने वाले कुछ वर्षो बाद इन इलाकों में बड़ी सामाजिक समस्या आ सकती है। दूसरा कोख का सौदा उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद का है यह काफी कुछ पंजाब वाले मामले से मिलता है। जिला मुख्यालय से पचास किमी दूर मीरगंज में सारा गांव ही बाहर से आई महिलाऒं से आबाद है लेकिन इन महिलाओं को यहां के लोग अपनी गरीबी के कारण खरीद कर लाए है न कि पंजाब की तरह महिलाओ की कमी के कारण। कभी बाढ़ के कारण अपने घरों से विस्थापित इन लोगों को जहां बसाया गया वहां इनकी हालत इतनी खराब हो गई कि कोई यहां अपनी लड़की की शादी करने को राजी नहीं हुआ तो इन्होंने भी बंश बढ़ाने के लिए कोख का सौदा कर लिया। यह चाहे मजबूरी हो या कुछ और लेकिन महिलाओं को लेकर हमारे समाज की मनोस्थिति को तो रेखांकित करता ही है।एक और कोख का सौदा हुआ यह समाज के सबसे सभ्य और सुस्कृत तरीके से किया गया। सांइस की प्रगति ने सक्षम न होने पर भी अपने बच्चे की लालसा पूरा करने का तरीका सुझा दिया है। एक नया तरीका है धाय मां जिसे अंग्रेजी में कहा जाता है सेरोग्रेटरी मदर। मामला कुछ यूं है कि गाजियाबाद के एक डाक्टर ने अपने बच्चे की चाह में साथ मे काम करने वाली नर्स से सौदा कर लिया। यह तो कोख का बड़ा सभ्य सौदा था क्यों कि न तो महिला को कोई ऐतराज था और न पुरुष को। खैर पुरुष को तो होता ही क्यों उसे तो अपनी इच्छाएं पूरी करने का साधन उपलब्ध हो गया। पूरा सौदा पचास हजार में तय हुआ। मामला तीन साल तक चला लेकिन फिर अचानक महिला और पुरुष मे मतभेद हो गए। महिला ने पुरुष पर बलात्कार का मामला दर्ज कराया तो पुरुष ने महिला पर अमानत मे खयानत का। दोनों में कौन सही है यह तो कहा नहीं जा सकता। लेकिन कुछ सवाल तो सामने आ ही गए है। अगर इस तरह से हर आदमी को पैसा देकर कोख किराए में लेने और शारीरिक संबध के आधार पर बच्वा पैदा करने की अनुमति मिल जाए तो वेश्यावृति के लिए किसी नए शब्द की रचना करनी पड़ेगी। इस संबंध से पैदा हुए बच्चे और अवैध संतानों में क्या फर्क होगा। क्या एक पुरुष को यह अधिकार है कि वह पैसा देकर महिला की कोख खरीद ले और शारीरिक संबंध बना ले। मालूम कि भारत में धाय मां को लेकर कोई कानून है या नहीं। यह एक नई घटना है। यह सही है कि इस मामले में महिला की सहमति थी लेकिन सवान तो फिर भी वही है कि कोख को किराए पर देने की। ये तीनों घटनाएं बता रही है कि समाज में कितनी ही प्रगति हुई हो और महिलाओ की स्थिति बेहतर होने के कितने ही दावे किए जाए लेकिन साइंस की प्रगति का उपकरण महिलाओं के शोषण हथियार बन रहा है। जब तक आर्थिक तौर पर समाज में असमानता होगी तब तक पुरुष कोख खरीदते रहेंगे। यह असमानता ‌क्षेत्र के आधार पर होगी तो असम बंगाल और उडीसा से कोख खरीदी जाएगी और व्यक्ति के आधार पर होगी तो धाय मां के आधार पर खरीददारी होगी। देश की जीडीपी की दर देख कर खुश होने वाले समाज के टूटते बिखरते धरातल को भी देखे।

Tuesday, August 21, 2007

कीर्ति चक्र की कीमत

आपको शायद यह जानकर आश्चयर्य होगा कि एक बूढ़े मां बाप के लिए कीर्तिचक्र की कीमत केचल चालीस रुपये है। यह धनरशि उनको सरकार की ओर से दी जाती है। क्योंकि उनका बेटा आज से पच्चीस साल पहले बदमाशों के साथ मुठभेड़ में मारा गया था। सरकार ने तब कहा कि वह शहीद हुआ है। उसकी इस शहादत पर सरकार ने उसको मरणोपरांत कीर्तिचक्र दिया। साथ ही शहीद के पिता को तीस और मां को दस रुपये हर माह देने की घोषणा की। बेटे को समाज की सु‌रक्षा के लिए कुर्वान करने वाले की कीमत सरकार ने कितनी सस्ती लगाई। चालीस रुपये में दो लोग महीना बिता सकते हैं( अब पच्चीस साल बाद शहीद के मांबाप के सामने भूखों मरने की नौबत आ चुकी है। उनकी तरह जर्जर हो चुका उनका मकान भी पिछले दिनो गिर गया। जर्रज मकान ने जर्जर दोनों बूढ़ों का साथ छोड़ दिया। एक ट्रांसपोर्ट वाले ने रहने की जगह दे रखी है। अब कब तक रहेंगे यहां। एक सरकार के बाद दूसरी सरकार आईं और गई़ लेकिन उनकी हालत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इन दोनों बूढ़ों ने अब शासन को चेतावनी दी है कि उनकी हालत पर ध्यान नहीं दिया गया तो वे आत्महत्या कर लेंगे। व्रशासन कुछ तो कर नहीं सकता। इसलिए पुलिस कप्तान ने आदेश जारी कर दिया कि उन पर नजर रखी जाय ताकि वे आत्महत्या न कर लें। यह क्या इस समाज के लिए शर्म की बात नहीं है कि उसके शहीद के परिजन भूख गरीबी के साथ अपमानजनक जीवन जिए। यदि ऐसा ही होता रहा तो कोई क्यों शहादत देगा। जो समाज अपने शहीदों को याद नहीं रखता उसका पतन तो निश्चत है।

Saturday, August 18, 2007

कौन आजाद हुआ





हम भी आजाद तुम भी आजाद कौन आजाद हुआ किसके पैरों से जंजीर टूटी

हवन और प्रधानमंत्री मनमोहन सिह

भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिह आजकल खतरे में है। उनके राजनीतिक विरोधी उनके खिलाफ न जाने क्या क्या नहीं कर रहे है। उनकी मृत्यु के लिए भारतीय जनता पार्टी ने हवन किया। यह कोई नहीं खुद उन्होने ही कहा है। वह भी एक पत्रिका के साथ दिए इंटरव्यू में। उनको यह सब तीन महीने पहले ही पता थी। लेकिन उन्होने इस बात को छपवाया अब क्यों कि अमेरिका से परमाणु समझौता हो चुका है। मनमोहन सिंह ने क्या टाइमिंग दी है। क्रिकेट की भाषा में गेंद सीधे सीमा रेखा के बाहर और छक्का। अमेरिका से परमाणु समझौता होते ही मनमोहन इतने महत्वपूर्ण हो गए कि उनकी मृत्यु तक की कामना की जाने लगी। लगता है अब मनमोहन की रक्षा अमेरिका को ही करनी पड़ेगी। बैसे भी यह अमेरिका का नैतित दायित्व है कि वह मनमोहन सिंह की पुख्ता सुरक्षा इतंजाम करे क्यों कि इतना अच्छे वफादार बार बार थोड़े मिलते है। अमेरिका को भाजपा से कहना चाहिए कि वह ऐसे हवन न करे। इस बात को कह कर मनमोहन ने अमेरिका कौ चेताता है कि देखो भारत में अब भी ऐसे लोग हैं जो हवन कर विरोधियों को मृत्यु का वरण करवा सकते हैं। अगर यह बात अल कायदा वालों को पता चल गई तो कितने लोगों के लिए आफत आ जाएगी। ओसामा बिन लादेन तो जार्ज बुश और जान मेजर के नाम से हवन करवा देगा। उनका क्या होगा। शायद आईपीसी और सीआरपीसी में तो कोई धारा होगी जिसमें भाजपा के नेताओं पर मुकदमा दर्ज किया जा सके लेकिन अंतरराष्टीय कानून में हवन के खिलाफ मुकदमा करने की शायद कोई धारा नहीं है। हवन को लेकर एक और भी तथ्य की ओर मनमोहन सिंह ने इशारा किया कि हे ब्राह्मणों तुम फौरन हवन का पेटेंट करवा लो वरना मैं कुछ नहीं कर पाउंगा। मैने तुमको इशारा कर दिया है। वैसे भी अमेरिका हर चीज का पेटेंट कर रहा है चाहे वह तुम्हारे घर की मिट्टी ही क्यों न हो। अगर कुछ ऊंच नींच हो गई तो मेरे से मत कहना मैं तो अमेरिका का विरोध करने में विश्वास नहीं करता। वैसे उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण तो आजकल भ्रम में है कि भाजपा की ओर देखे या बसपा की ओर खैर हवन की बात कह कर मनमोहन सिंह ने बता दिया कि उनका ब्रह्म ग्यान किसी से कम नहीं है। जब उन पर खतरा है तो सोनिया गांधी भी उनको कुछ नहीं कहेंगी। तभी तो भाजपा के हथियार से ही उसको पराजित करने की मुहिम छेड़ हुए है। कौन कहता है मनमोहन सिंह को राजनीति नहीं आती है। देखा कैसे कूंपमंडूकता के मामले में हमारे लदन स्कूल आफ इक्नोमिक्स के प्रोफेसर ने भाजपा की बत्ती गुल कर दी। धन्य है मनमोहन सिंह जी आप और हम धन्य हैं हमारे भाग कि आप सा प्रधानमंत्री हमारी जिंदगी में आया।

Thursday, August 16, 2007

रोमा कब से माओवादी हो गई।

जमीन की लड़ाई कितनी तेज और खतरनाक हो गई है। इसका पता मिर्जापुर में एक एनजीऒ चला रही रोमा के साथ हुए सरकारी कार्रवाई से पता चलता है। दस साल पहले रोमा ने इस पिछड़े इलाके के दलितो आदिवासियों और गरीब लोगों के बीच काम शुरु किया। समस्या सिर्फ यह है कि रोमा ने अन्य एनजीओ की तरह फंड लाने और उसका उपयोग लोगों में सत्ता के पक्ष में बनाए रखने के कुछ काम न कर उनकी मूलभूत समस्या को देखना शुरु कर दिया। यही गलती हो गई रोमा से उसने जमीन के मुद्दे को उठा लिया। इलाके के दबंगों को यह मंजूर नहीं क्यों कि अब तक जिन पर शासन करने की आदत थी वे अब जमीन मांगने लगे। पुलिस को भी समस्या ही थी क्यों कि कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा हो रही थी। इसके बाद उस पर पहले तो मुकदमे थोपे गए और फिर राष्टीय सुरक्षा अधिनियम में बंद कर दिया गया। कहा जा रहा है कि वह माओवादी है। हकीकत तो यह है कि वह कह रही है कि उसने तो बसपा के लिए काम किया। यह सब हो रहा है उत्तर प्रदेश में जहां दलित स्वाभिमान के नाम पर सत्ता पर आई है। लेकिन जब कोई इन वंचितों के बारे में संघर्ष करता है तो सत्ता प्रतिष्ठानों को परेशानी हो जाती है। एक ओर सभी राजनीतिक दल उद्योग पतियों को औने पौने दामों पर जमीने दे रहे है लेकिन भूमिहीनों के लिए जमीन कहीं भी नहीं है। जमीन की बात करने से ही एक एनजीओ से इतना खतरानाक हो जाता है कि शासन उसको खत्म करने पर तुल जाता है। इसके लिए माओवादी होना बताया जाता है। सत्ता गरीबों के संघर्ष को माओवाद की गाली से संबोधित कर उसको समाप्त करने की मुहिम चलाए रखे लेकिन गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ेगी तो संघर्ष के नए रुप सामने आएंगे ही। गोली और डंडे से संघर्ष नहीं रुका करते। गरीब की बात करने वाला हर कोई माओवादी नहीं होता है।

भूल गए संजय दत्त को

दो हफ्ते पहले जब संजय दत्त को सजा सुनाई तो हमारे मीडिया का विधवा विलाप हो रहा था। पूरे दिन चौबीस घंटे टेलीविजन पर हाय संजय हाय संजय होती रही। ऐसा लग रहा था कि न जाने देश पर कितनी बड़ी आफत आ गई है। अब तो फिल्म इंडस्टरी बरबाद हो जाएगी। नेता से लेकर सड़क छाप शोहदे तक परेशान हो गए। केवल दो हफ्ते बाद आज किसी को पता नहीं है कि संजय दत्त की क्या हालत है। सही सि्थित तो यह थी कि तब भी आम आदमी को ज्यादा लेना देना नहीं था कि संजय दत्त का क्या हो रहा है। केवल उन लोगों को सबसे अधिक समस्या आई थी जो खुद को कानून से बड़ा मानते थे या है। या ये वे लोग है जिनका पैसा संजय दत्त की फिल्मों में लगा है। जिस के पिता और मां उसके बाद बहिन सांसद हो उसको भी सजा यह तो बड़ा गलत है। कुछ सिनेमा के कलाकारों ने तो हस्ताक्षर अभियानन भी चलाया जिस पर उन्हें सरकारी वकील की चेतावनी सुननी भी पड़ी। आखिर वे कानून को अपने हिसाब से क्वों चलाना चाहते हैं। सबसे आश्चर्य यह है कि मीडिया दो दिन बाद चुप हो गया। शायद किसी दिन इसकी चेतना जागेगी तो यह सही बात करेगा। अभी तो सिनेमा जगत के कुछ अन्य सितारों सलमान खान फरदीन खान और भी कई लोगों पर मुकदमे चल रहे हैं। इनकी सजा पर कितना रोएगा।

Monday, August 13, 2007

हिंदी भाषियों की हत्या

असम में पिछले कुछ दिनों से हिंदी भाषी लोगों पर उल्फा का कहर टूटा हुआ है। कम ये कम बीस हिंदी बालने वालों मजदूरों की हत्या की जा चुकी है। इनमें से अधिकतर बिहारी मजदूर है। कुछ ऐसा ही कश्मीर में भी हुआ। वहां भी आतंकवादी संगठनों ने बाहरी मजदूरों को कश्मीर छोड़ने का फरमान जारी कर दिया। यह समझ में नहीं आता कि इन निरीह मजदूरों से संगठनों से क्या खतरा हो सकता है। असम में उल्फा अब किसी विचार से संचालित होने वाला संगठन न होकर लुटेरों का समूह है। इसका एकमात्र काम वसूली करना और बांग्लादेश में आरामदायक जीवन बिताना है। हिंदी भाषियों की हत्या भी इस रणानीति का हिस्सा है। असम में हिंदी भाषी मजदूर बड़ी संख्या में काम की तलाश मे वहां जाते रहे हैं। उल्फा की रणनीति यह है कि इन मजदूरों को किसी भी तरह से असम से हटा दिया जाय और उनकी जगह बांग्लादेशी गरीबों को यहां लाया जाय। ये बांग्लादेशी कम मजदूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। इसके साथ ही इन लोगों को डराना भी आसान है क्यों कि ये अवैध घुसपैठिए होते हैं इनसे वसूली भी आसानी से हो सकती है। लेकिन उल्फा की यह कार्रवाई आईएसआई की ही एक चाल है। इस तरह आईएसआई पूर्वोत्तर भारत को कमजोर करना चाहता है। सबसे आश्चर्य यह है कि उल्फा के लिए अब असमी संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। यह घटनाएं भारत के लिए खतरा होगा।

Saturday, August 11, 2007

झुकने की सीमा है कामरेड

अमेरिका के साथ परमाणु करार के बाद हमारे बामपंथी कुछ ज्यादा ही लाल दिखाइ दे रहे हैं। वे वास्तव में नाराज है या यह किसी रणनीति के तहत काम कर रहे हैं। हालत तो यह है कि अब बामपंथियो की नाराजगी किसी को चौंकाती नहीं है। जब इन्होंने भाजपा को रोकने के नाम पर यूपीए को समर्थन दिया था तो तभी यह भी निश्चित हो गया था कि इनको किन नीतियों को समर्थन देना होगा। मनमोहन सिंह का अमेरिका से लगाव उनको तब भी मालूम था। भाजपा और कांगेस पर अमेरिका का दबाव का भी इन्हें पता था। उसके बाद भी ये यूपीए के साथ गए तो अपने को ही धोखा दे रहे थे। २००२ के चुनाव के बाद दोनों राजनतिक दलों की नीतियों के विरोध में इन वामपथियों की एक तीसरे ब्लाक की स्थापना इन्होंने करनी चाहिए थी तब ये स्पष्ट तौर पर दूसरा पोल दिखाइ देते और इन नीतियों का विरोध भी हो पाता। जनता के सामने भी एक नीतियों का विकल्प होता। इन वामपंथियों को भी आम आदमी के लिए संघर्ष करना पड़ता। यह एक कठिन काम है लेकिन वामपथियों के सत्ता में भागीदारी से ज्यादा आवश्यक है। इस संघर्ष में समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके साथ होता। समझौते ने इनको पतित कर दिया है। अब इनके कार्यकर्ताओं पर हैदराबाद में गोली चलती है लेकिन ये सिर्फ विरोध के लिए मुंह खोलते है कर कुछ भी नहीं पाते। करें भी तो कैसे खुद भी नंदीगांव में किसानों पर गोलियां चलाते हैं। अब भी मौका है कि कामरेड समझौते खत्म कर संघर्ष का रास्ता चुन लें वरना इतिहास के पास एक बड़ा कूडादान है।

Thursday, August 9, 2007

तस्लीमा नसरीन

हैदराबाद में तंस्लीमा नसरीन पर वहां के मुिस्लम कट्टरपंथियो ने हमला किया उससे दो दिन पहले मुंबई में शिवसैनिकों ने एक प्रोफेसर पर हमला किया ऒर उनके मुंह पर कालिख मल दी। इन दोनों में एक ही समानता है कि इन राजनीतिक दलों के कायकर्ताऒं ने कानून को अपने हाथ में ले लिया। इनके लिए यह कोइ बड़ी बात भी नहीं है। हमारे देश के लोकतन्त्र में अब तो यह प्रचलन हो गया है कि दंगा करना राजनीतिक दलों का अधिकार है। शिवसैनिक तो तोड़फोड़ करने के लिए कुख्यात हैं। जिन लोगों ने तस्लीमा पर हमला किया वे विधायक हैं लेकिन उन्हें कानून की क्या चिंता। हम तो खुद ही कानून बनाते हैं कानून हमारा क्या कर लेगा। धर्म के नाम पर दंगा करने का व्यापक अधिकार मिला हुआ है। तस्लीमा नसरीन का कसूर सिर्फ इतना है कि उन्होंने हर जगह इन तत्वों का विरोध किया। ऐसे तत्व हर समाज में मौजूद है। वह भारत हो बांग्लादेश हो पाकिस्तान हो या इरान। किसी भी जगह पर इनको देखा जा सकता है। इनके लिए विरोधी विचार को खत्म हो जाना चाहिए। सबसे बड़ी चुनौती समाज के बुद्धीजीवी वर्ग के सामने है कि वे इसका सामना कैसे करते हैं। पत्रकार कम से कम इन लोगों का बहिष्कार तो कर ही सकते हैं।

Wednesday, August 8, 2007

नेता

आखिर क्या हो गया है हमारे कान्ग्रेसी नेताओ को जो सन्जय के जेल जाने से दुबले हुए जा रहे हौ उनको तो कानून और सन्विधान की भी चिन्ता नही है आखिर इसी अदालत ने चौदह लोगो को फासी की सजा दी है अपराध तो सबने किया है फिल्म वालों की बात तो समझ मे आती है क्यो कि वे भी खुद को कानून से बडा समझते है उन्हे यह केसे मन्जूर हो कि उनके साथ आम आदमी के जैसा सलूक हो वे तो पैसै वाले हे

Wednesday, August 1, 2007

सन्जय

हाय सन्जय दत्त को सजा हो ग इ पिछले दो दिन सै सारे मीडैया मै यही रोना हौ सब को चिन्ता है कि अब क्या होगा सिनेमा का कै करोड रुपया लगा हुआ है यहा तक कि देश का एक मन्तरी को इस पर ताज्जुब होता हौ इनके लिए कानून के शासन से ज्यादा सन्जय हौ सरकार के लोग कहते है यह उन्की निजी राय हौ लगता है कि सरकार मे सामूहिक जिम्मेदारी के कोइ मायने नही हौ सन्जय दत्त को जिस अदालत ने सजा दी है उसने क इ ओरो को भी सजा दी पर किसी को फरक नही पडा क्यो कि वे अपराधी थे

inam

तेज बहादुर पुन एक अस्लई साल का बूढा गोरखा सैनिक हौ उसने बिरिटिश सेना की ओर से दूसरे विश्व युद्द मे भाग लिया अब उसे अगरेज देश से निकल जाने को कह रहे है कहा जाएगा उसे विक्टोरिया करास मिला था अपना खुन बहाने वाले क इनाम