Monday, September 10, 2007

सेलवा जूडूम कर सच

केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश का यह कहना कि सेलवा जूडूम की पुनर्समीक्षा की जाएगी। इस व्यक्तव्य से माओवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे इस आंदोलन का सच सामने आ गया। छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने दो साल पहले माओवादियों के प्रभाव को कम करने के लिए सेलवा जूडूम शुरु किया था। इस आंदोलन की सबसे चौकाने वाली बात यह थी कि इसे कांग्रेस के सांसद महेन्द्र कर्मा चला रहे थे लेकिन भाजपा के पूरे संगठन का इसे समर्थन इसे था। माओवादियों के खिलाफ भाजपा और कांग्रेस एक हो गए थे। आदोलन का मुख्य काम बांटो और कमजोर करो था। इसने आदिवासियों में मतभेद पैदा करने का प्रयास किया। इस आदोलन को हमेशा संदेह से देखा गया। सेलवा जूडूम में गांव के प्रमुखों को यह अधिकार दिया गया कि वे अपने इलाके में संदिग्ध लोगों या कहे कि माओवादियों से सहानुभूति रखने वालों को चिन्हित करे। ताकि उस इलाके में माओवादियों का संगठन तोड़ा जा सके। सीधा सा अर्थ था कि एक विचार से लड़ने के लिए दोनों राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस ने खुद को असमर्थ पा रहे थे। इसके लिए समाज के लंपट तत्वों का सहारा लिया। इसके असफल होने की संभावना पहले से ही थी और यह अपने मकसद में यह आंदोलन पूरी तरह से असफल हुआ। इसके संचालकों ने जिन तत्वों को इसमें शामिल किया वे आदिवासियों के संपन्न तबके को शामिल किया। यह संपन्न वर्ग आदिवासियों के हितों के खिलाफ जाकर संपन्न बना था। इसकी अपने समाज में कोई प्रतिष्ठा नहीं थी। इस वर्ग ने पहला काम तो यह किया कि अपने दुश्मनों को माओवादी बताना शुरु कर दिया। दूसरा जिन लोगों ने आदोलन में शामिल होना नहीं चाहा वे भी इसके निशाने पर आ गए। दूसरी ओर सेलवा जूडूम में जाने वालों को माओवादियों ने अपना वर्ग शत्रु मान कर सफाया करना शुरु कर दिया। सीधा सा परिणाम यह हुआ कि आदिवासी दोनों संधर्षरत पक्षों के बीच फंस गए। माओवादियों से बचाने के लिए सरकार ने कई गांवों के लोगों को शिविर में रखा। लगभग पचास हजार लोगों को शिविर में रखा गया। सेलवा जूडूम माओवादियों को तो कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन सरकार की साख दांव पर लग गई। सेलवा जूडूम ने आदिवासियों का जीना कठिन कर दिया। इसका ही परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में आदिवासी आंध्रप्रदेश के सीमांत जिलों में चले गए। अब सत्ता पर बैठे लोगों को समझ में आ रहा है कि यह गलत था। सही बात यह है कि हाशिए पर फेंके गए गरीब विचत और आदिवासी जब भी अपने हक की मांग करेंगे तो सेलवा जूडूम जैसे आदोलन चलाए ही जाएंगे। होना तो यह चाहिए कि इन तबकों के बाजिब हकों को हमारा सत्ता प्रतिष्ठान स्वीकार कर ले और उन्हें भी विकास का लाभ देने का प्रयास करे।

2 comments:

Sanjeet Tripathi said...

सलवा जुडूम की शुरुआत सलवा जुडूम के रुप में ही हुई थी जिसे कि स्थानीय भाजपा सरकार ने और कांग्रेस के महेंद्र कर्मा धड़े ने लोकप्रियता बढ़ाने का एक अच्छा मौका समझते हुए राजनैतिक रंग दे दिया। और जिन आदिवासी समूहों ने वास्तविक सलवा जुडूम शुरु किया था उन्होने राज्य सरकार और प्रशासन के साथ कर्मा जैसे जनप्रतिनिधियों का साथ मिलने पर शांति की संभावना ज्यादा बढ़ जाने की आशा मे सलवा जुडूम का सरकारीकरण हो जाने दिया , पर समय ने आगे चलकर यह बता दिया कि यह उन आदिवासियों का सपना मात्र रह गया। आज आलम यह है कि आदिवासी दो पाटों के बीच पिस रहे हैं। नक्सली तो मुखबिर या सलवा जुडूम कार्यकर्ता होने का आरोप लगाकर तो मार ही रहे हैं जबकि पुलिस नक्सली समर्थक होने का आरोप लगाकर मार रही है।
हम और आप जैसे लोग वैचारिक जुगाली करने मे , मुद्दों की सत्यता तलाशने -लिखने और एक दूसरे को गलत ठहराने में ही लगे बैठे हैं जबकि बस्तर आदिवासी विहीन होने की ओर लगातार बढ़ता जा रहा है।

प्रेम पुनेठा said...

चिंता तो उन्हीं आदिवासियों की है। ये लोग चाहे लोकतंत्र का शिकार बनें या लोकतंत्रविरोधियों का। अब तो लोगों ने वैचारिक जुगाली भी बंद कर दी है। इसलिए अगर कोई कहीं कुछ सोच रहा है तो यह भी साधुवाद के लिए ही है।