Thursday, September 27, 2007

भगत सिंह ः क्रांतिकारी और विचारक भी


आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के बाद अगर किसी एक व्यक्ति ने भारतीय जनमानस को सबसे अधिक प्रभावित किया तो वह भगत सिंह ही थे। केवल तेईस साल में फांसी पर चढ़ने वाले भगत सिंह का दर्शन भारतीय संदर्भों मे बहुत व्यापक था। आज भी वे नवयुवकों के लिए आदर्श बने हैं। भगत सिंह के साथ एक गलत बात यह हुई कि उनको केवल राष्ट्वादी के तोर पर प्रचारित प्रसारित किया गया क्यों कि यही देश के शासकों को रास आता है। वास्तव में भगत सिंह एक विचारक भी थे लेकिन उनके दर्शन को आम लोगों तक सही रुप में आने ही नहीं दिया गया। भगत सिंह केवल भारत की आजादी अंग्रेजों से ही नहीं चाहते थे बल्कि देशी सामंतवाद पूंजीवाद और शोषण के हर तरीके को खत्म करने के लिए लड़ रहे थे। उन्होंने कहा भी था भारतीय जनता के कंधे पर दो जुए रखे है एक विदेशी और दूसरा देशी सामंतवाद और शोषणा का। भगत सिंह ने हमेशा विश्व की क्रांतियों का अध्ययन किया। उन्होंने ही नौजवानों के संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के साथ सोशलिस्ट शब्द को जोड़कर उसे वैचारिक आधार दिया। इसके साथ-साथ इस शब्द को अपने साथियों के सामने रखा। भगत सिंह रुस की क्रांति से प्रभावित थे और उसी तरह का समाज बनाने के लिए काम करना चाहते थे। क्रांति के लिए उनका दिया नारा इंकलाब जिन्दाबाद आज भी हर अन्याय अत्याचार का विरोध करने वाले की जुबान पर होता है। भगत सिंह का तत्कालीन राजनीतिक स्थितियों का आंकलन भी सही था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के बारे में उन्होंने कहा था कि इसकी अंतिम परिणति समझौते में होगी और उनकी शहादत के लगभग १६ साल बाद यह सही साबित हुआ। काग्रेस के आंदोलन मे जिस तरह से जमीदार पूंजीपति और संपन्न तबका जुड़ा था उसको लेकर भगत सिंह का आंकलन सही था कि इससे आम भारतीय को राहत नहीं मिलेगी। इसलिए शोषण विहीन समाज के लिए क्रांति का रास्ता चुना। असेंबली में बम फेंकने का मामला भी पूरी तरह वैचारिक आधार लिए था। यह एक हीरो बनने का शार्टकट नहीं था जैसा कई मुबंइया फिल्मों में भगत सिंह के किरदार को दिखाया गया है। यह पूरी तरह से एक वैचारिक संधर्ष था। यह कहने में फिल्म वालों को भी परहेज है। संसद मे बम फेंकने का फैसला एक बड़ी बहस का परिणाम था। इसकी प्रेरणा भगत सिंह को फ्रांस की क्रांति पर लिखी बेलां की किताब से मिली। इस किताब में लेखक ने लिखा कि उसने युवाओं मजदूरों के बीच काम किया लेकिन असफल रहा अगर मैं संसद मे बम फोड़ देता तो शायद बहरी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचा पाता। इन्ही वाक्यों से भगत सिंह का संसद पर बम फेंकने का विचार कौंधा। इसे उन्होंने स्वीकार भी किया। संसद में बम कौन फेकेगा इस पर भी पार्टी संगठन में बहस हुई। चंन्द्र शेखर भी उनको इस काम से दूर रखना चाहते थे लेकिन भगत सिंह ने कहा कि अदालत के मंच का जितना अच्छा उपयोग वे कर सकते हैं उतना कोई नहीं कर पाएगा और आखिर में भगत सिंह ने ही इस काम को अंजाम दिया। अदालत में भगत सिंह ने कहा कि वे आतंकवादी नहीं बल्कि देश की आजादी के सेनानी है। ये भगत सिंह के तर्क ही थे कि लाहौर हाईकार्ट के जज ब्रेल ने कहा कि ये वैचारिक आंदोलनकारी है। अदालत के बयानों के बाद भगत सिंह के पक्ष में जनसमर्थन आ गया। यहां तक कि कांग्रेस के अंदर भी उनको बचाने की मांग उठी। सुभाष चंद्र बोस ने तो गांधी की इच्छा के विरुद्ध जाकर भगत सिंह को फांसी देने के विरोध में जनसभा भी की। यह उनकी विचारों का ही प्रभाव था। अब भी जरुरत भगत सिंह को एक विचारक के तौर पर समझने की है। अंत में वे पंक्तियां जो भगत सिंह को पसंद थी

क़माले बुज़दिली है अपनी ही नज़रों में पस्त होनागर थोड़ी सी जुर्रत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकताउभरने ही नहीं देतीं ये बेमाइगियाँ दिल कीनहीं तो कौन सा क़तरा है जो दरिया हो नहीं सकता

Friday, September 14, 2007

हिन्दी के बहाने क्षेत्रीय बोली और भाषाएं

आज हिन्दी दिवस है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं विभाग आज हिन्दी का वार्षिक कर्मकांड की तरह समारोह करेंगे। यह एक मौका है कि हम हिन्दी ही नही भारतीय भाषाओं के बारे में सोचे कि आजादी के साठ साल बाद उनकी हालत क्या है। कहने को हिन्दी राष्ट् भाषा बना दी गई लेकिन साथ में अंग्रेजी को जोड़ दिया गया। दो दशक बाद ही हिन्दी विरोधी आंदोलन ने नई राजनीति को जन्म दिया। इसने भाषा के सवाल को उलझा कर रख दिया। अपनी सुविधा के लिए सत्ता ने तीन भाषा का फार्मूला दिया। इससे आम आदमी की भाषा को कोई लाभ नहीं हुआ। अलबत्ता क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाओं के लिए समस्या पैदा कर दी। वैसे भारत में कभी भी जनभाषा और राजभाषा एक नहीं रही। भाषाई आधार पर शासकों ने जनता से एक दूरी बनाए रखने की कोशिश की। जब भारत के जनमानस की भाषा पाली और प्राकृत थी तो राजभाषा संस्कृत थी। देवभाषा के तौर पर प्रतिष्ठित इस भाषा ने विशेष किस्म का आरक्षण समाज में लागू किया। उच्च पदों पर केवल वही लोग पहुंच पाते थे जो इस भाषा में पारंगत थे। मध्यकाल में जब जनभाषा हिन्दवी या अन्य क्षेत्रीय बोलियां थीं तो शासन की भाषा फारसी बनी रही। यह सांस्कृतिक उच्चता का मान कराती रही। ब्रिटिश काल में हिन्दी के एक भाषा के तौर स्थापित होने पर अंग्रेजी शासन की भाषा बन गई। यह आज तक जारी है। अंग्रेजों ने सचेतन प्रयास से अंग्रेजी को स्थापित किया। भूमंडलीयकरण के दौर में पूरे विश्च को एक रुप में ढालने की कोशिश हो रही है तो एक ही एक भाषा की जरुरत इस प्रक्रिया को हो रही है। इस प्रक्रिया ने भारतीय भाषाऒं और बोलियों संकटग्रस्त कर दिया है। हालत यह है कि हर बच्चा अंग्रेजी माध्यम में ही पारंगत होना चाहता है। ताकि वह अपने लिए अधिक रोजगार और प्रगति के अवसर पैदा कर सके। इस कोशिश में वह अपनी भाषा की ओर उसका ध्यान ही नहीं है। क्षेत्रीय भाषा और बोलियों का प्रयोग अब घरों में भी नहीं हो रहा है। इसका नतीजा यह हुआ कि भूमंडलीकरण दौर के बच्वे अपनी भाषा से वंचित हो रहे है। भाषा की जानकारी न होने पर संस्कृति की भी जानकारी नहीं हो पाती है। भले ही अभी यह स्पष्ट तौर पर दिखाई न दे रहा हो लेकिन समाज के अंदर बह रही धारा को अनुभव किया जा सकता है। अंग्रेजी के वर्चस्व ने हिन्दी को कोने में धकेला क्यों कि अवसर और प्रगित के साधन उसके पास कम थे लेकिन क्या यही हिन्दी के वर्चस्व ने क्षेत्रीय बोलियों के साथ नहीं किया। हिन्दी इलाके में बोली जाने वाली अवधी ब्रज बुंदेलखंडी भोजपुरी मगधी कुमाउंनी गढवाली राजस्थानी का क्या हुआ। हिन्दी माध्यम से शिक्षा देने के कारण इन इलाकों की नई पीढ़ी अपनी भाषा और बोली से कटती चली गई। इस भाषा और बोलियों को बोलने वालों की संख्या लगातार कम होती चली गई। हिन्दी भाषी इलाके कई बोलियों को नई पीढ़ी जानती ही नहीं है। ऐसा इसलिए हुआ कि इन भाषा और बोली जानने वालों को इसके आधार पर रोजगार नहीं मिल सकता था। सीधा सा तर्क है कि जो भाषा रोटी नहीं देगी वह कमजोर हो जाएगी। कल हिन्दी का वर्चस्व क्षेत्रीय बोलियों के लिए खतरा था अब यह खतरा दोगुना हो गया है। अब हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी भाषा भी एक बडे शत्रु के रुप में मौजूद है। हिन्दी की प्रगति के लिए आवश्यक है कि इन बोलियों के साथ एक नए सामंजस्य की व्यवस्था की जाए। अगर क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां नहीं बचेंगी तो हिन्दी कभी मजबूत नहीं हो सकती। ये सभी छोटी धाराएं है जो मिलकर हिन्दी को एक बड़ी नदी का रुप देती है। जब छोटी धाराएं ही सूख जाएंगी तो नदी का आकार कम होना ही है। जरुरत इन छोटी धाराओं को बचाने की है। हिन्दी के लिए चिंतित विद्वानों को इन बोली भाषओं के बारे में भी सोचना चाहिए। हिन्दी भले ही विज़ापन और फिल्मों की भाषा बन गई हो लेकिन वह क्मशः कमजोर होती जा रही है।

Wednesday, September 12, 2007

आगरा में डाक्टरों की हड़ताल

बारह सितम्बर को आगरा के सभी निजी नर्सिग होम अस्पताल के डाक्टरों ने हड़ताल कर दी। यह हड़ताल कहने को तो अनिश्चत कालीन है लेकिन कब तक चलेगी कहा नहीं जा सकता। इस हड़ताल ने मरीजों और डाक्टरों के रिश्तों को एक नए सिरे से देखने का मौका दिया है। यह हड़ताल इसलिए की गई कि पिछले दो महीनों में दो दर्जन से अधिक नर्सिंग होम और डाक्टरों पर हमले किए गए। वहां तोड़फोड़ की गई। हर बार यह हंगामा अस्पताल में भर्ती मरीजों के तीमारदारों ने की। मरीज के तीमारदार यह आरोप लगाते है कि डाक्टर ने सही इलाज नहीं किया। उसने पैसे पूरे लिए लेकिन इलाज में कोताही बरती। इसके विपरीत डाक्टरों का कहना है कि मरीज और उनके तीमारदार पैसे देने से बचने के लिए इस तरह के हंगामे करते है या करवाते है। दोनों पक्षों के आरोपों का आंकलन करें तो पूरे विवाद की जड़ में पैसा है। सही बात तो यह है कि हमारी लोककल्याणाकारी सरकारों के सरकार स्वास्थ्य के प्रति लगातार कम होते जा रहे हैं। अच्छी स्वास्थय सेवाएं पाना लगातार कम होता जा रहा है। सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं की कमी है। इससे भी बढ़कर सरकारी अस्पताल के डाक्टरों की संवेदनहीनता है। इनकी संवेदनहीनता का उदहारण आगरा के खंदौली क्षेत्र में हुआ गैस से झुलसे लोगों का मामला है। इनको सफदरजंग में इसलिए भर्ती नहीं किया गया कि वहां जगह नहीं थी। परिणाम यह हुआ कि कुछ बच्चों की मौत हो गई। इस पर दिल्ली हाइकोर्ट ने संज़ान लिया और अस्पताल प्रशासन को नोटिस भी जारी किया। यह मामला दिल्ली का था इसलिए सबको पता चल गया लेकिन दूरदराज के इलाकों में ऍसा होता तो किसी को पता ही नहीं चलता। बात डाक्टरों की हड़ताल की है। निजी अस्पताल के डाक्टर इस सारी स्थित के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। आज भी डाक्टरों को एक सम्मानजनक तौर पर देखा जाता है। यह माना जाता है कि वे पैसे से अधिक मानव सेवा को महत्व देंगे। हो तो इसका उल्टा ही है। निजी क्षेत्र के डाक्टरों का एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना रह गया है। इसके लिए वे कोई भी तरीका अपनाने को तैयार हैं। गांव और देहात से मरीजों को उनके नर्सिग होम तक लाने के लिए पूरा एक तंत्र काम करता है। गांव में बैठा झोलाछाप डाक्टर इनके ऍजेंट का काम करता है। वह गांव के मरीज को एक विशेष नर्सिंग होम तक पहुंचाने के एवज में अच्छी खासी रकम डाक्टर से वसूलता है। डाक्टर इस रकम को मरीज पर ही डाल देता है। इसका परिणाम यह कि इलाज की कीमत बढ़ जाती हे। इसके अलाला दवाइयों की खरीददारी टेस्ट कराने में भी जबरदस्त खेल होता है। हर मेडिकल टेस्ट और दवाइयों की खरीददारी में डाक्टरों का कमीशन निश्चित है। इन सबका पैसा कौन देगा। जाहिर है मरीज। दवा कंपनियां कितने प्रलोभन डाक्टरों को देते है यह किसी से छिपा नहीं है। इनका प्रभाव जनता में डाक्टर की नकारात्मत छवि के तौर पर बनती है। जनता को जब भी मौका मिलता है वह इनके खिलाफ हो जाती है। हालत तो तब और भी खराब हो जाते है जब निजी अस्पताल विशेषज़ तो रखते नहीं है लेकिन आपरेशन जरुर करते है। तब ये सरकारी अस्पतालो के डाक्टरों को बुलाते हैं। ये डाक्टर सरकारी अस्पताल मे सारी सुविधा होने पर भी मरीजों को निजी नर्सिग होमों की ओर धकेल देते है। बाद में खुद वहां जाकर काम करते है और बदले में बढ़िया फीस वसूलते है। इसके लिए एक बड़ी सीमा तक नर्सिंग होम के संचालक दोषी है। एक ओर तो वे सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों को भ्रष्ट करते है दूसरी ओर गरीब मरीजो पर अनावश्यक बोझ डालते हैं। डाक्टा चाहते है कि वे कितने ही पैसे ले या गलत काम करे फिर भी उनको मानव की सेवा करने वाला मानकर सम्मान मिलता रहे। ऍसा हो नहीं सकता। अगर डाक्टर वास्तव मे सम्मान चाहते है तो उनको मानवता की सेवा करने वाला ही बनना होगा पैसे के पीछे भागने वाला धनपशु नहीं। वक्त अपने गिरेबां में झांकने का है।

Monday, September 10, 2007

सेलवा जूडूम कर सच

केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश का यह कहना कि सेलवा जूडूम की पुनर्समीक्षा की जाएगी। इस व्यक्तव्य से माओवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे इस आंदोलन का सच सामने आ गया। छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने दो साल पहले माओवादियों के प्रभाव को कम करने के लिए सेलवा जूडूम शुरु किया था। इस आंदोलन की सबसे चौकाने वाली बात यह थी कि इसे कांग्रेस के सांसद महेन्द्र कर्मा चला रहे थे लेकिन भाजपा के पूरे संगठन का इसे समर्थन इसे था। माओवादियों के खिलाफ भाजपा और कांग्रेस एक हो गए थे। आदोलन का मुख्य काम बांटो और कमजोर करो था। इसने आदिवासियों में मतभेद पैदा करने का प्रयास किया। इस आदोलन को हमेशा संदेह से देखा गया। सेलवा जूडूम में गांव के प्रमुखों को यह अधिकार दिया गया कि वे अपने इलाके में संदिग्ध लोगों या कहे कि माओवादियों से सहानुभूति रखने वालों को चिन्हित करे। ताकि उस इलाके में माओवादियों का संगठन तोड़ा जा सके। सीधा सा अर्थ था कि एक विचार से लड़ने के लिए दोनों राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस ने खुद को असमर्थ पा रहे थे। इसके लिए समाज के लंपट तत्वों का सहारा लिया। इसके असफल होने की संभावना पहले से ही थी और यह अपने मकसद में यह आंदोलन पूरी तरह से असफल हुआ। इसके संचालकों ने जिन तत्वों को इसमें शामिल किया वे आदिवासियों के संपन्न तबके को शामिल किया। यह संपन्न वर्ग आदिवासियों के हितों के खिलाफ जाकर संपन्न बना था। इसकी अपने समाज में कोई प्रतिष्ठा नहीं थी। इस वर्ग ने पहला काम तो यह किया कि अपने दुश्मनों को माओवादी बताना शुरु कर दिया। दूसरा जिन लोगों ने आदोलन में शामिल होना नहीं चाहा वे भी इसके निशाने पर आ गए। दूसरी ओर सेलवा जूडूम में जाने वालों को माओवादियों ने अपना वर्ग शत्रु मान कर सफाया करना शुरु कर दिया। सीधा सा परिणाम यह हुआ कि आदिवासी दोनों संधर्षरत पक्षों के बीच फंस गए। माओवादियों से बचाने के लिए सरकार ने कई गांवों के लोगों को शिविर में रखा। लगभग पचास हजार लोगों को शिविर में रखा गया। सेलवा जूडूम माओवादियों को तो कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन सरकार की साख दांव पर लग गई। सेलवा जूडूम ने आदिवासियों का जीना कठिन कर दिया। इसका ही परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में आदिवासी आंध्रप्रदेश के सीमांत जिलों में चले गए। अब सत्ता पर बैठे लोगों को समझ में आ रहा है कि यह गलत था। सही बात यह है कि हाशिए पर फेंके गए गरीब विचत और आदिवासी जब भी अपने हक की मांग करेंगे तो सेलवा जूडूम जैसे आदोलन चलाए ही जाएंगे। होना तो यह चाहिए कि इन तबकों के बाजिब हकों को हमारा सत्ता प्रतिष्ठान स्वीकार कर ले और उन्हें भी विकास का लाभ देने का प्रयास करे।

Friday, September 7, 2007

छात्र संघों पर रोक क्यों

उत्तर प्रदेश शासन ने एक आदेश जारी कर छात्रसंघों के चुनावों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है। इसके पीछे कारण दिया गया है कि सरकार शिक्षा का वातावरण सुधारना चाहती है और विश्वविद्यालय औरमहाविद्यालयों में गुण्डागर्दी खत्म करना चाहती है। सामान्य तौर से यह दोनों काम सरकार के ही है कि वह बेहतर शिक्षा बच्चों काे दे और आम आदमी के जानमाल की रक्षा करे। सवाल यह है कि केवल छात्र संघों के चुनाव को रोकने से यह सब होम जाएगा। सरकार का यह कदम घनघोर अलोकतांत्रिक है। लोकतंत्र में आस्था रखने वाला एक सामान्य सोच का आदमी भी इसका समर्थन नहीं कर सकता है। सरकार का यह सोच कि छात्रसंघ सिर्फ गुंडागर्दी का अड्डा बन गए है गलत सोच का नतीजा है। छात्रों के भी कुछ हित है उनकी भी समस्याएं हैं। आखिर छात्रसंघ न होने पर विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रों के हक की बात कौन करेगा। समस्या केवल छात्रों की नहीं बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था का है। सारी शिक्षा व्यवस्था ही चरमरा गई है। न तो सही समय पर परीक्षा होती हैं और न परिणाम आते हैं। जितने दिन पढ़ाई होनी चाहिए उतनी कब होती है। इसके लिए भी छात्र कैसे जिम्मेदार हो गए। अगर इनको सही करने के लिए छात्र मांग करें तो इसे गुंडागर्दी कहा जाएगा। सरकार को चाहिए कि वह पहले शिक्षा का कलैन्डर तो सही कर ले फिर कोई दूसरी बात करे। कुलपति से लेकर बाबू तक की नियुक्ति तक तो सरकार अपने आदमियों की करती है। छात्र संघ के चुनाव में राजनीतिक दल खुलकर भाग लेते हैं। यह गलत भी नहीं है क्योंकि इसके बहाने छात्रों के बीच विभिन्न मुद्दों को लेकर बहस तो होती है। इससे छात्रों में राजनीतिक सक्रियता तो आती है।
सही बात तो यह है कि छात्र संघ का चुनाव लोकतंत्र का पालना है। यहीं से भावी नेता इन्हीं संस्थानों से आएंगे। अगर शिक्षा क्षेत्र से नेता नहीं आने चाहिए तो सरकार बताए कि किस फील्ड से भावी नेताओं को आना चाहिए। यह आदेश शिक्षा विरोधी है। इसका परिणाम यह होगा कि समाज में किसी भी तरह से हीरो बन जाने वाला युवा नेता बन जाएगा। एक छोटे से वर्ग का नेता घटिया तरीके अपना कर ही बनेगा। गुंडागर्दी का असली कारण विचारविहीन राजनीतिक दलों का सत्ता में आना है। इनकी विचारविहीनता ही छात्रसंघों के चुनाव में दिखाई देती है।
अगर यह मान भी लिया जाय कि छात्रसंघों के नेता गुडे है तो इस देश की संसद और विधानसभाओं पर भी रोक लगनी चाहिए। वहां तो सजायाफ्ता बैठै है। कई माननीयों पर हत्या बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने का आरोप है। चुनाव जीतने के लिए कितना धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल होता है यह किसी से छिपा है क्या। छात्र राजनीति ने ही एनडी तिवारी प्रकाश करात सीताराम येचुरी प्रफुल्ल कुमार महंत लालू प्रसाद यादव अरुण जेटली विजय गोयल को संसद तक पहुचाया है। पूर्वोत्तर के कई सांसद और विधायक छात्र राजनीति की ही देन हैं। ये छात्र नेता ही थे जिन्होंने गुजरात में भ्रष्ट चिमन भाई पटेल सरकार के खिलाफ मोर्चा लिया और बाद में बिहार में भी छात्रों ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।
सही तो यह है कि सत्ता हमेशा युवाओं से डरती है। इसलिए वह यह प्रयास करती है कि युवाओं को कभी भी एकजुट न होने दो। यही कारण है कि पूरी शिक्षा व्यवस्था को इस तरह से संचालित किया जाए कि छात्र एक स्थान पर आए ही नहीं। दूरस्थ शिक्षा इसका सबसे अच्छा उदहारण है। छात्र संघों के चुनाव पर रोक का विरोध होना ही चाहिए।

कृष्ण भक्तों से मैली हुई यमुना

कृष्ण जन्माष्टमी पर मथुरा में देश भर से कम से बीस लाख लोग आए यद्यपि मथुरा वाले तो पचास लाख लोगों के आने का दावा कर रहे हैं। आंकड़ा चाहे कुछ भी हो। इतना तो निश्चित है कि कई लाख लोग आए थे अपनी भक्ति और आस्था के कारण समाज के सबसे गरीब लोग यहां आते हैं क्योंकि इन गरीबों को लगता है कि भगवान ही कोई चमत्कार करेंगे और उनकी हालत बदल जाएगी अगर कुछ नहीं भी होगा तो अगला जन्म तो सुधर ही जाएगा। इतने लोगों के लिए प्रशासन ने कोई व्यवस्था नहीं की हुई थी। दूर दराज से आए लोगों को मथुरा में जमुना के किनारे और मंदिरों के आसपास खुले आसमान के नीचे सोए हुए देखा जा सकता था। थोड़ी सी जगह देखकर बस खड़ी कर दी और चार ईंटों को जोड़कर चूल्हा बना लिया। उस पर ही मोटी रोटियां सेक कर भूख मिटा ली। एक चादर बिछाकर सो गए। यहां तक तो सब ठीक है। यह देखकर उनकी आस्था के प्रति श्रद्धा भी होती है। असली समस्या तो तब होती है जब ये सब लोग गंदगी फैला देते है। पूरे शहर में खाने की गंदगी ही दिखाई देती है। असली गंदगी तो दूसरे दिन दिखती है जब हर झाडी और पेड़ के पीछे मानव मल ही दिखाई देता है। सारा यमुना का किनारा गंदगी से भर जाता है। हालत इतनी खराब हो जाती है कि कई हफ्तों तक वातावरण से दुर्गन्ध जाती ही नहीं है। फिर यह सारे की सारी गंदगी यमुना में ही चली जाती है। पहले से ही प्रदूषित यमुना और कितनी गंदी हो जाती है। इसकी किसी को चिंता नहीं है। न किसी को परवाह है। तीन दिन के ब्रज प्रवास के दौरान कृष्ण भक्त कितनी यमुना को गंदा कर घर चले जाते हैं।

Thursday, September 6, 2007

ब्रज में योगमाया कहां है

अभी कृष्ण जन्माष्टमी मनाई गई। स्वाभाविक है पूरे ब्रज में उल्लास था। इसके बाद गोकुल में नंदोत्सव भी हुआ। इस सारे कार्यक्रम में एक बात जबरदस्त तरीके से झकझोरती रही कि जिस बालिका के स्थान पर कृष्ण को गोकुल में रखा गया था उसका कोई भी उत्सव ब्रज के किसी स्थान पर नहीं मनाया गया। उस बालिका को योगमाया कहा गया। इसके बारे में किंबदंती है कि कंस के हाथ से छूट कर वह आकाशवाणी करती हुई चली गई। योगमाया मिर्जापुर में विध्यवासिनी के तौर पर अधिस्थापित हो गई। वहीं उनकी पूजा अर्चना होती है। कहने को गोकुल में योगमाया का एक मंदिर है और उनकी पूजा होती है। योगमाया के उत्सव न होने पर वहां के निवासियों का कहना है कि यशोदा ने कभी उसको देखा ही नहीं क्योंकि उसके जन्म के समय वह गहरी निद्रा में थी और बव्वे के तौर पर उन्होंने कृष्ण को ही देखा। कृष्ण की गतिविधियां होने के कारण उनका ही महत्व है। यदि गंभीरता से देखा जाय तो यह सारी व्यवस्था महिला विरोधी दिखाई देती है। सबसे बड़ा अपराध तो एक बालिका को उसकी मां से अलग करना ही है। यदि यह मान भी लिया जाय कि समाज के व्यापक हित में यह बलिदान आवश्यक था तब भी उस बालिका को इतिहास में उचित स्थान मिलना चाहिए। लेकिन हमारे समाज में तो महिलाओं को हमेशा ही कमतर माना गया। उनका त्याग और बलिदान किसी काम का नहीं। उन्हें तो घर परिवार और समाज के हित में ही काम करना चाहिए। योगमाया के साथ अन्याय आज की कितनी ही योगमायाओं के साथ हो रहा है। भ्रूण हत्या से लेकर दहेज के लिए कितनी ही योगमाया मारी जा रही है। कृष्ण को भगवान मानने वाले कभी उस नवजात बालिका के बारे में भी सोचत। बालिका को भगवान न मानते लेकिन एक इंसान की तरह तो उससे व्यवहार करते।

Wednesday, September 5, 2007

भुखमरी और मौत

हमारे देश में गरीब की मौत कभी खबर नहीं बनती है क्याकि जीडीपी और सेंनसेक्स लगतार बढ़ रहा है। उड़ीसा के कालाहांडी में हैजा और भूख से लोग मर रहे हैं। कुछ आप भी सोचिए