Friday, September 14, 2007
हिन्दी के बहाने क्षेत्रीय बोली और भाषाएं
आज हिन्दी दिवस है। सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं विभाग आज हिन्दी का वार्षिक कर्मकांड की तरह समारोह करेंगे। यह एक मौका है कि हम हिन्दी ही नही भारतीय भाषाओं के बारे में सोचे कि आजादी के साठ साल बाद उनकी हालत क्या है। कहने को हिन्दी राष्ट् भाषा बना दी गई लेकिन साथ में अंग्रेजी को जोड़ दिया गया। दो दशक बाद ही हिन्दी विरोधी आंदोलन ने नई राजनीति को जन्म दिया। इसने भाषा के सवाल को उलझा कर रख दिया। अपनी सुविधा के लिए सत्ता ने तीन भाषा का फार्मूला दिया। इससे आम आदमी की भाषा को कोई लाभ नहीं हुआ। अलबत्ता क्षेत्रीय और स्थानीय भाषाओं के लिए समस्या पैदा कर दी। वैसे भारत में कभी भी जनभाषा और राजभाषा एक नहीं रही। भाषाई आधार पर शासकों ने जनता से एक दूरी बनाए रखने की कोशिश की। जब भारत के जनमानस की भाषा पाली और प्राकृत थी तो राजभाषा संस्कृत थी। देवभाषा के तौर पर प्रतिष्ठित इस भाषा ने विशेष किस्म का आरक्षण समाज में लागू किया। उच्च पदों पर केवल वही लोग पहुंच पाते थे जो इस भाषा में पारंगत थे। मध्यकाल में जब जनभाषा हिन्दवी या अन्य क्षेत्रीय बोलियां थीं तो शासन की भाषा फारसी बनी रही। यह सांस्कृतिक उच्चता का मान कराती रही। ब्रिटिश काल में हिन्दी के एक भाषा के तौर स्थापित होने पर अंग्रेजी शासन की भाषा बन गई। यह आज तक जारी है। अंग्रेजों ने सचेतन प्रयास से अंग्रेजी को स्थापित किया। भूमंडलीयकरण के दौर में पूरे विश्च को एक रुप में ढालने की कोशिश हो रही है तो एक ही एक भाषा की जरुरत इस प्रक्रिया को हो रही है। इस प्रक्रिया ने भारतीय भाषाऒं और बोलियों संकटग्रस्त कर दिया है। हालत यह है कि हर बच्चा अंग्रेजी माध्यम में ही पारंगत होना चाहता है। ताकि वह अपने लिए अधिक रोजगार और प्रगति के अवसर पैदा कर सके। इस कोशिश में वह अपनी भाषा की ओर उसका ध्यान ही नहीं है। क्षेत्रीय भाषा और बोलियों का प्रयोग अब घरों में भी नहीं हो रहा है। इसका नतीजा यह हुआ कि भूमंडलीकरण दौर के बच्वे अपनी भाषा से वंचित हो रहे है। भाषा की जानकारी न होने पर संस्कृति की भी जानकारी नहीं हो पाती है। भले ही अभी यह स्पष्ट तौर पर दिखाई न दे रहा हो लेकिन समाज के अंदर बह रही धारा को अनुभव किया जा सकता है। अंग्रेजी के वर्चस्व ने हिन्दी को कोने में धकेला क्यों कि अवसर और प्रगित के साधन उसके पास कम थे लेकिन क्या यही हिन्दी के वर्चस्व ने क्षेत्रीय बोलियों के साथ नहीं किया। हिन्दी इलाके में बोली जाने वाली अवधी ब्रज बुंदेलखंडी भोजपुरी मगधी कुमाउंनी गढवाली राजस्थानी का क्या हुआ। हिन्दी माध्यम से शिक्षा देने के कारण इन इलाकों की नई पीढ़ी अपनी भाषा और बोली से कटती चली गई। इस भाषा और बोलियों को बोलने वालों की संख्या लगातार कम होती चली गई। हिन्दी भाषी इलाके कई बोलियों को नई पीढ़ी जानती ही नहीं है। ऐसा इसलिए हुआ कि इन भाषा और बोली जानने वालों को इसके आधार पर रोजगार नहीं मिल सकता था। सीधा सा तर्क है कि जो भाषा रोटी नहीं देगी वह कमजोर हो जाएगी। कल हिन्दी का वर्चस्व क्षेत्रीय बोलियों के लिए खतरा था अब यह खतरा दोगुना हो गया है। अब हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी भाषा भी एक बडे शत्रु के रुप में मौजूद है। हिन्दी की प्रगति के लिए आवश्यक है कि इन बोलियों के साथ एक नए सामंजस्य की व्यवस्था की जाए। अगर क्षेत्रीय भाषाएं और बोलियां नहीं बचेंगी तो हिन्दी कभी मजबूत नहीं हो सकती। ये सभी छोटी धाराएं है जो मिलकर हिन्दी को एक बड़ी नदी का रुप देती है। जब छोटी धाराएं ही सूख जाएंगी तो नदी का आकार कम होना ही है। जरुरत इन छोटी धाराओं को बचाने की है। हिन्दी के लिए चिंतित विद्वानों को इन बोली भाषओं के बारे में भी सोचना चाहिए। हिन्दी भले ही विज़ापन और फिल्मों की भाषा बन गई हो लेकिन वह क्मशः कमजोर होती जा रही है।
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