Wednesday, September 12, 2007

आगरा में डाक्टरों की हड़ताल

बारह सितम्बर को आगरा के सभी निजी नर्सिग होम अस्पताल के डाक्टरों ने हड़ताल कर दी। यह हड़ताल कहने को तो अनिश्चत कालीन है लेकिन कब तक चलेगी कहा नहीं जा सकता। इस हड़ताल ने मरीजों और डाक्टरों के रिश्तों को एक नए सिरे से देखने का मौका दिया है। यह हड़ताल इसलिए की गई कि पिछले दो महीनों में दो दर्जन से अधिक नर्सिंग होम और डाक्टरों पर हमले किए गए। वहां तोड़फोड़ की गई। हर बार यह हंगामा अस्पताल में भर्ती मरीजों के तीमारदारों ने की। मरीज के तीमारदार यह आरोप लगाते है कि डाक्टर ने सही इलाज नहीं किया। उसने पैसे पूरे लिए लेकिन इलाज में कोताही बरती। इसके विपरीत डाक्टरों का कहना है कि मरीज और उनके तीमारदार पैसे देने से बचने के लिए इस तरह के हंगामे करते है या करवाते है। दोनों पक्षों के आरोपों का आंकलन करें तो पूरे विवाद की जड़ में पैसा है। सही बात तो यह है कि हमारी लोककल्याणाकारी सरकारों के सरकार स्वास्थ्य के प्रति लगातार कम होते जा रहे हैं। अच्छी स्वास्थय सेवाएं पाना लगातार कम होता जा रहा है। सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं की कमी है। इससे भी बढ़कर सरकारी अस्पताल के डाक्टरों की संवेदनहीनता है। इनकी संवेदनहीनता का उदहारण आगरा के खंदौली क्षेत्र में हुआ गैस से झुलसे लोगों का मामला है। इनको सफदरजंग में इसलिए भर्ती नहीं किया गया कि वहां जगह नहीं थी। परिणाम यह हुआ कि कुछ बच्चों की मौत हो गई। इस पर दिल्ली हाइकोर्ट ने संज़ान लिया और अस्पताल प्रशासन को नोटिस भी जारी किया। यह मामला दिल्ली का था इसलिए सबको पता चल गया लेकिन दूरदराज के इलाकों में ऍसा होता तो किसी को पता ही नहीं चलता। बात डाक्टरों की हड़ताल की है। निजी अस्पताल के डाक्टर इस सारी स्थित के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। आज भी डाक्टरों को एक सम्मानजनक तौर पर देखा जाता है। यह माना जाता है कि वे पैसे से अधिक मानव सेवा को महत्व देंगे। हो तो इसका उल्टा ही है। निजी क्षेत्र के डाक्टरों का एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना रह गया है। इसके लिए वे कोई भी तरीका अपनाने को तैयार हैं। गांव और देहात से मरीजों को उनके नर्सिग होम तक लाने के लिए पूरा एक तंत्र काम करता है। गांव में बैठा झोलाछाप डाक्टर इनके ऍजेंट का काम करता है। वह गांव के मरीज को एक विशेष नर्सिंग होम तक पहुंचाने के एवज में अच्छी खासी रकम डाक्टर से वसूलता है। डाक्टर इस रकम को मरीज पर ही डाल देता है। इसका परिणाम यह कि इलाज की कीमत बढ़ जाती हे। इसके अलाला दवाइयों की खरीददारी टेस्ट कराने में भी जबरदस्त खेल होता है। हर मेडिकल टेस्ट और दवाइयों की खरीददारी में डाक्टरों का कमीशन निश्चित है। इन सबका पैसा कौन देगा। जाहिर है मरीज। दवा कंपनियां कितने प्रलोभन डाक्टरों को देते है यह किसी से छिपा नहीं है। इनका प्रभाव जनता में डाक्टर की नकारात्मत छवि के तौर पर बनती है। जनता को जब भी मौका मिलता है वह इनके खिलाफ हो जाती है। हालत तो तब और भी खराब हो जाते है जब निजी अस्पताल विशेषज़ तो रखते नहीं है लेकिन आपरेशन जरुर करते है। तब ये सरकारी अस्पतालो के डाक्टरों को बुलाते हैं। ये डाक्टर सरकारी अस्पताल मे सारी सुविधा होने पर भी मरीजों को निजी नर्सिग होमों की ओर धकेल देते है। बाद में खुद वहां जाकर काम करते है और बदले में बढ़िया फीस वसूलते है। इसके लिए एक बड़ी सीमा तक नर्सिंग होम के संचालक दोषी है। एक ओर तो वे सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों को भ्रष्ट करते है दूसरी ओर गरीब मरीजो पर अनावश्यक बोझ डालते हैं। डाक्टा चाहते है कि वे कितने ही पैसे ले या गलत काम करे फिर भी उनको मानव की सेवा करने वाला मानकर सम्मान मिलता रहे। ऍसा हो नहीं सकता। अगर डाक्टर वास्तव मे सम्मान चाहते है तो उनको मानवता की सेवा करने वाला ही बनना होगा पैसे के पीछे भागने वाला धनपशु नहीं। वक्त अपने गिरेबां में झांकने का है।

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