Thursday, August 16, 2007

रोमा कब से माओवादी हो गई।

जमीन की लड़ाई कितनी तेज और खतरनाक हो गई है। इसका पता मिर्जापुर में एक एनजीऒ चला रही रोमा के साथ हुए सरकारी कार्रवाई से पता चलता है। दस साल पहले रोमा ने इस पिछड़े इलाके के दलितो आदिवासियों और गरीब लोगों के बीच काम शुरु किया। समस्या सिर्फ यह है कि रोमा ने अन्य एनजीओ की तरह फंड लाने और उसका उपयोग लोगों में सत्ता के पक्ष में बनाए रखने के कुछ काम न कर उनकी मूलभूत समस्या को देखना शुरु कर दिया। यही गलती हो गई रोमा से उसने जमीन के मुद्दे को उठा लिया। इलाके के दबंगों को यह मंजूर नहीं क्यों कि अब तक जिन पर शासन करने की आदत थी वे अब जमीन मांगने लगे। पुलिस को भी समस्या ही थी क्यों कि कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा हो रही थी। इसके बाद उस पर पहले तो मुकदमे थोपे गए और फिर राष्टीय सुरक्षा अधिनियम में बंद कर दिया गया। कहा जा रहा है कि वह माओवादी है। हकीकत तो यह है कि वह कह रही है कि उसने तो बसपा के लिए काम किया। यह सब हो रहा है उत्तर प्रदेश में जहां दलित स्वाभिमान के नाम पर सत्ता पर आई है। लेकिन जब कोई इन वंचितों के बारे में संघर्ष करता है तो सत्ता प्रतिष्ठानों को परेशानी हो जाती है। एक ओर सभी राजनीतिक दल उद्योग पतियों को औने पौने दामों पर जमीने दे रहे है लेकिन भूमिहीनों के लिए जमीन कहीं भी नहीं है। जमीन की बात करने से ही एक एनजीओ से इतना खतरानाक हो जाता है कि शासन उसको खत्म करने पर तुल जाता है। इसके लिए माओवादी होना बताया जाता है। सत्ता गरीबों के संघर्ष को माओवाद की गाली से संबोधित कर उसको समाप्त करने की मुहिम चलाए रखे लेकिन गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ेगी तो संघर्ष के नए रुप सामने आएंगे ही। गोली और डंडे से संघर्ष नहीं रुका करते। गरीब की बात करने वाला हर कोई माओवादी नहीं होता है।

8 comments:

Ashish Maharishi said...

isa ki kuch chattishgarh ke Dr. Sen ke sath huwa tha..

Sanjay Tiwari said...

"गरीब की बात करने वाला हर कोई माओवादी नहीं होता है।"
माओवादी नहीं आतंकवादी भी हो जाए तो हर्ज क्या है? अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सत्ता में कौन बैठा है. जो सत्ता में बैठेगा वह कंपनियों की दलाली करेगा. फिर चाहे वे मुलायम सिंह हों या मायावती.
मुलायम सिंह के पास अमर सिंह थे तो मायावती के पास सतीश चंद्र मिश्रा हैं जिनके जरिये उद्योंगपति अपना उल्लू सीधा करते हैं.

अनिल रघुराज said...

रोमा के काम के बारे में थोड़ा विस्तार से लिखते तो अच्छा होता। वैसे, माओवादी या नक्सली बताकर किसी का दमन करना सत्ता के लिए सबसे आसान होता है।

अफ़लातून said...

माओ प्रभावित लोग स्वयंसेवी संस्था चलाएँ ,यह क्या नामुमकिन है?

vishesh said...

रोमाजी के बारे में ताजे अपडेट से अवगत कराने के लिए शुक्रिया.

मगर आप अपने यह शब्‍द वापस लें कि माओवाद कोई गाली है. गांधी की विचारधारा गांधीवाद है, तो उसी तरह माओ की विचारधारा माओवाद है. माओ के विचारो को दोबारा पढ़ें, फिर बताएं कि माओवादी होना गाली किस तरह है.

हां अगर पूंजी की खिड़की से आप देखेंगे तो जरूर आपको माओवाद गाली नजर आएगा.


रोमा जी के साथ की गई कार्रवाई की भर्त्‍सना के साथ मैं आपके द्वारा 'माओवादी' को गाली ठहराए जाने की भी निंदा करता हूं.

vishesh said...

अफलातून से आंशिक सहमत...

प्रेम पुनेठा said...

माओवाद आम आदमी के निए कोई गाली नहीं है लेकिन शासक वर्ग ने इसका इस्तेमाल गरीबों के लिए संघर्ष करने वालो के लिए गाली जरुर किया है। मैने भी इसे सत्ताधारियों के संदर्भ में ही किया है। विशेष जी ने सिर्फ तीन शब्दों पर ही टिप्पणी कर दी। आप पूरे वाक्य को सही संन्दर्भ में ले लेते तो यह अर्थ नहीं आता।

poonam pandey said...

जब जुल्म तुम्हारा हद से गुजर जाएगा, तब हौसला-ए-जुनू हमारा और भी बढ़ जाएगा, नहीं रोक सकती जंजीर हमारे इरादों को,हर एक बन तूफान तुमसे टकराएगा, तुम कौन से इतिहास की बात करते हो,हमारा लहू खुद नया इतिहास बनाएगा ( संघर्षशील जनता की तरफ से शासकवर्ग को जवाब)