Monday, August 13, 2007
हिंदी भाषियों की हत्या
असम में पिछले कुछ दिनों से हिंदी भाषी लोगों पर उल्फा का कहर टूटा हुआ है। कम ये कम बीस हिंदी बालने वालों मजदूरों की हत्या की जा चुकी है। इनमें से अधिकतर बिहारी मजदूर है। कुछ ऐसा ही कश्मीर में भी हुआ। वहां भी आतंकवादी संगठनों ने बाहरी मजदूरों को कश्मीर छोड़ने का फरमान जारी कर दिया। यह समझ में नहीं आता कि इन निरीह मजदूरों से संगठनों से क्या खतरा हो सकता है। असम में उल्फा अब किसी विचार से संचालित होने वाला संगठन न होकर लुटेरों का समूह है। इसका एकमात्र काम वसूली करना और बांग्लादेश में आरामदायक जीवन बिताना है। हिंदी भाषियों की हत्या भी इस रणानीति का हिस्सा है। असम में हिंदी भाषी मजदूर बड़ी संख्या में काम की तलाश मे वहां जाते रहे हैं। उल्फा की रणनीति यह है कि इन मजदूरों को किसी भी तरह से असम से हटा दिया जाय और उनकी जगह बांग्लादेशी गरीबों को यहां लाया जाय। ये बांग्लादेशी कम मजदूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। इसके साथ ही इन लोगों को डराना भी आसान है क्यों कि ये अवैध घुसपैठिए होते हैं इनसे वसूली भी आसानी से हो सकती है। लेकिन उल्फा की यह कार्रवाई आईएसआई की ही एक चाल है। इस तरह आईएसआई पूर्वोत्तर भारत को कमजोर करना चाहता है। सबसे आश्चर्य यह है कि उल्फा के लिए अब असमी संस्कृति से कोई लेना देना नहीं है। यह घटनाएं भारत के लिए खतरा होगा।
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5 comments:
प्रिय शूद्रक जी, मुझे लगता है कि असमियों के असंतोष की जड़ें हिंदीभाषियों द्वारा उनके संसाधनों पर कब्जे से जुड़ी हैं। उल्फा के इस कृत्य को आप सही नहीं ठहरा सकते, लेकिन इस मानसिकता से इस विवाद का हल भी नहीं खोजा जा सकता। उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में बिहारियों के विरोध के पीछे की मानसिकता यही है। यहां फर्क सिर्फ इतना है कि विरोध का तरीका हिंसक नहीं है। असम को इन हालातों से निकालने के लिए दूसरे कारणों पर भी नजर डालनी होगी।
राकेश जी से सहमत
संसाधन कुदरत का दिया हुआ मुफ़्त का उपहार है। उस पर उसी का हक होगा जो मेहनत से उस पर उत्पादन करेगा। असम की समस्या पतित राजनीति का नमूना है। जहां राजनेताऒं ने अपने स्वार्थ के लिए बांग्लादेश के घुसपैठियों कौ बसाया। अपने ही देश में किसी को काम करने का अधिकार है। जो लोग असमी संस्कृति की हिफाजत के लिए आंदोलन चला रहे थे और बंगाली सांस्कृतिक आधिपत्य के खिलाफ थे वे आज मजदूरों की हत्या कर रहे है। संसाधनों पर मजदूर नहीं पूंजीपति कब्जा करते हैं। अपने सामंती सोच से बाहर आकर देखो तो दुनिया का व्यापक फलक सामने होगा। चेतना का स्तर कम होने के कारण ही हम बिहारी बंगाली मराठी और दूसरी राष्टीयताऒं की बात करते हैं।
पहले आप खुद तय कर लें कि आप उपराष्ट्रीयता के पक्ष में हैं या नहीं.
शायद यह भी हिन्दी का विकास कई गुणा बढ़ाने में उत्प्रेरक होगा। अक्सर विरोध प्रतिबल बनकर गति को आगे बढ़ाने का काम करता है। जैसे किसी की छवि को नष्ट करने के लिए यदि दर्पण को फोड़ दें तो उसके हर टुकड़े में उस छवि का प्रतिबिम्ब प्रकट होने लगता है।
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