आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के बाद अगर किसी एक व्यक्ति ने भारतीय जनमानस को सबसे अधिक प्रभावित किया तो वह भगत सिंह ही थे। केवल तेईस साल में फांसी पर चढ़ने वाले भगत सिंह का दर्शन भारतीय संदर्भों मे बहुत व्यापक था। आज भी वे नवयुवकों के लिए आदर्श बने हैं। भगत सिंह के साथ एक गलत बात यह हुई कि उनको केवल राष्ट्वादी के तोर पर प्रचारित प्रसारित किया गया क्यों कि यही देश के शासकों को रास आता है। वास्तव में भगत सिंह एक विचारक भी थे लेकिन उनके दर्शन को आम लोगों तक सही रुप में आने ही नहीं दिया गया। भगत सिंह केवल भारत की आजादी अंग्रेजों से ही नहीं चाहते थे बल्कि देशी सामंतवाद पूंजीवाद और शोषण के हर तरीके को खत्म करने के लिए लड़ रहे थे। उन्होंने कहा भी था भारतीय जनता के कंधे पर दो जुए रखे है एक विदेशी और दूसरा देशी सामंतवाद और शोषणा का। भगत सिंह ने हमेशा विश्व की क्रांतियों का अध्ययन किया। उन्होंने ही नौजवानों के संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के साथ सोशलिस्ट शब्द को जोड़कर उसे वैचारिक आधार दिया। इसके साथ-साथ इस शब्द को अपने साथियों के सामने रखा। भगत सिंह रुस की क्रांति से प्रभावित थे और उसी तरह का समाज बनाने के लिए काम करना चाहते थे। क्रांति के लिए उनका दिया नारा इंकलाब जिन्दाबाद आज भी हर अन्याय अत्याचार का विरोध करने वाले की जुबान पर होता है। भगत सिंह का तत्कालीन राजनीतिक स्थितियों का आंकलन भी सही था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के बारे में उन्होंने कहा था कि इसकी अंतिम परिणति समझौते में होगी और उनकी शहादत के लगभग १६ साल बाद यह सही साबित हुआ। काग्रेस के आंदोलन मे जिस तरह से जमीदार पूंजीपति और संपन्न तबका जुड़ा था उसको लेकर भगत सिंह का आंकलन सही था कि इससे आम भारतीय को राहत नहीं मिलेगी। इसलिए शोषण विहीन समाज के लिए क्रांति का रास्ता चुना। असेंबली में बम फेंकने का मामला भी पूरी तरह वैचारिक आधार लिए था। यह एक हीरो बनने का शार्टकट नहीं था जैसा कई मुबंइया फिल्मों में भगत सिंह के किरदार को दिखाया गया है। यह पूरी तरह से एक वैचारिक संधर्ष था। यह कहने में फिल्म वालों को भी परहेज है। संसद मे बम फेंकने का फैसला एक बड़ी बहस का परिणाम था। इसकी प्रेरणा भगत सिंह को फ्रांस की क्रांति पर लिखी बेलां की किताब से मिली। इस किताब में लेखक ने लिखा कि उसने युवाओं मजदूरों के बीच काम किया लेकिन असफल रहा अगर मैं संसद मे बम फोड़ देता तो शायद बहरी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचा पाता। इन्ही वाक्यों से भगत सिंह का संसद पर बम फेंकने का विचार कौंधा। इसे उन्होंने स्वीकार भी किया। संसद में बम कौन फेकेगा इस पर भी पार्टी संगठन में बहस हुई। चंन्द्र शेखर भी उनको इस काम से दूर रखना चाहते थे लेकिन भगत सिंह ने कहा कि अदालत के मंच का जितना अच्छा उपयोग वे कर सकते हैं उतना कोई नहीं कर पाएगा और आखिर में भगत सिंह ने ही इस काम को अंजाम दिया। अदालत में भगत सिंह ने कहा कि वे आतंकवादी नहीं बल्कि देश की आजादी के सेनानी है। ये भगत सिंह के तर्क ही थे कि लाहौर हाईकार्ट के जज ब्रेल ने कहा कि ये वैचारिक आंदोलनकारी है। अदालत के बयानों के बाद भगत सिंह के पक्ष में जनसमर्थन आ गया। यहां तक कि कांग्रेस के अंदर भी उनको बचाने की मांग उठी। सुभाष चंद्र बोस ने तो गांधी की इच्छा के विरुद्ध जाकर भगत सिंह को फांसी देने के विरोध में जनसभा भी की। यह उनकी विचारों का ही प्रभाव था। अब भी जरुरत भगत सिंह को एक विचारक के तौर पर समझने की है। अंत में वे पंक्तियां जो भगत सिंह को पसंद थी
क़माले बुज़दिली है अपनी ही नज़रों में पस्त होनागर थोड़ी सी जुर्रत हो तो क्या कुछ हो नहीं सकताउभरने ही नहीं देतीं ये बेमाइगियाँ दिल कीनहीं तो कौन सा क़तरा है जो दरिया हो नहीं सकता