संजय दत्त ने मान्यता से शादी कर ली, सेलिबिटी की शादी मे उत्सुकता होना स्वाभिवक है लेकिन जिस तरह से मीडिया इस शादी के पीछे पागल हुआ वह तो आश्चर्यजनक हैा इससे पहले अभिषेक बच्चन और एश्वर्य की शादी में भी मीडिया ने ऐसा ही कुछ किया थाा इन दो मौकों पर ऐसा लगता था मानों यही देश का सबसे बडा कार्यक्रम है और इसको कबर न किया जाए तो सारा मीडिया का सामान्य ज्ञान तुच्छ माना जाएगा हो सकता है कि आपके ज्ञान पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाएा टीआरपी गिर जाएगी, अखबार का पहला पेज चमकीला नहीं हो पाएगा तो पाठक नाराज कि आखिर क्या छाप दिया संजय दत्त गायब
आम आदमी से यही अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह समाज के बेहतर मूल्य व्यवस्था के बारे में गइराई से सोचे लेकिन मीडिया को क्या हुआा संजय दत्त आखिर कैसी सेलिबेटी है, जिसे निचली अदालत ने सजा सुनाई है और जो तमाम कानूनी दांवपेचों का सहारा लेकर ऊपरी अदालत से जमानत पर रिहा हैा सजा भी कैसी मुबई बम ब्लास्ट के साथा अवैध हथियार रखने कीा इस कमजोर सजा पर भी एक विचार मौजूद है कि प्रभावशाली होने के कारण उस पर पोटा नहीं लगाया गयाा यहां तक कि सीबीआई ने भी अदालत में इस मुददे पर जिरह करने की जरूरत नहीं समझी कि पोटा को भी लागू किया जाना चाहिएा
क्या यही हमारे मीडिया के मूल्य होंगे कि एक सजायाफ़ता को नायक की तरह पेश किया जाएा अगर संजय दत्त निदोर्ष हे और सेलिबेटी बनने लायक है तो िफर अन्य आरोपियों को क्यों दोषी बताया जाए वे सेलिबेटी बनने लायक न हो लेकिन संजय दत्त की तरह के सम्मानजनक व्यवहार के लायक तो ही सकते हैा संजय दत्त को सेलिबेटी बनाने वालों को कोई अधिकार नहीं है कि वे अन्य लोगों के कामों को गलत बताएंा अगर मुबंई बम व्लास्ट के समय संजय सरकारी एजेंसियों को सही समय पर सूचना देते कि इस तरह के हथियार आ रहे है तो शायद सरकारी एजेसियों को बुछ सुराग मिलते और स्थितियां दूसरी भी हो सकती थी
आज के मीडिया की सबसे बडी कमजोरी यह हो गई है कि उसका चरित्र वर्गीय हो गया है उसका प्रकाशन एक वर्ग को ध्यान में रख कर किया जाने लगा है वह जिसके पास खरीदने की ताकत है और जो अखबार में छपे विज्ञापनों की सामग्री को खरीद सके आम आदमी तो हाशिए पर हैा इसलिए संजय दत्त के सेलेबिटी बनाने में उसे कोई दुख नहींा यह वर्ग सोचने लगा है कि समाज में व्याप्त मूल्यविहीनता से उसे कोई फर्क नहीं पडने वाला इसलिए मूल्यों की चिंता करने वाले बुडभसों को रहने दोा मीडिया के नीतिनिर्धारकों के पास एकपल ठहरकर सोचने का वक्त नहीं है कि कहीं तो इस फिसलन पर रोक लगें मूल्यविहीनता कहीं न कहीं समाज में अराजकता को जन्म देगी और इसका पहजा शिकार मीडिया ही बनेगाा शायद एसी कमरों में बैठे न भी हो तो मैदान में दौड रहे उस मूल्य विहीनता की तपिश झेलेंगे
Tuesday, February 12, 2008
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