Thursday, October 4, 2007

उत्तराखंड के सवा दो लाख घरों में ताले

एक छोटी सी खबर हिन्दुस्तान में छपी थी कि सरकार के सर्वेक्षण में यह पता चला कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके में दो लाख से अधिक घरों में ताले लटके हुए है। इन घरों के लोग रोजी रोटी की तलाश में अपने गांवों से निकलकर या तो महानगरों में चले गए है या जिला मुख्यालयों में आ गए है। इतनी सी खबर व्यवस्था के चेहरे से नकाब उठा देती है। इतने सारे लोग एक दिन में तो गए नहीं होंगे। यह पलायन लगातार जारी रहा होगा। कभी किसी को इस पर सोचने का विचार भी नहीं आया। देश की आजादी किसी भी क्षेत्र के लिए खुशहाली लाई हो लेकिन उत्तराखंड में तो यह पलायन ही लेकर आई। दो लाख से ज्यादा घरों के सरकार की साठ साल की नीतियों का नतीजा हैं। लोगों का राज्य बनने के बाद देहरादून में बैठे सत्ताधारियों के लिए ये चुनौती भी है कि क्या अब इन घरों के ताले खुल पाएंगे या इनमें लगतार बढ़ोत्तरी होती चली जाएगी। ये ताले आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक चुनौतियां है। सरकार ने सर्वेक्षण तो करवा दिया अब इलाज क्या होगा। सामाजिक तौर पर देखा जाए तो यह शासन व्यवस्थापकों के आंतरिक उपनिवेश की कहानी है। जिसमें देश के कुछ हिस्सों को जानबूझकर आर्थिक रुप से पिछड़ा बनाया जाता है ताकि वहां से सस्ता श्रम और माल मिलता रहे। सत्ताधारियों की नजर में ये सिर्फ मतदाता और करदाता हैं। अलबत्ता नई अर्थव्यवस्था में ये उपभोक्ता भी बन गए हैं।

5 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

हैरत की बात नहीं है अगर दस-बीस सालों में पूरा देश ही खाली हो जाए. वैसे हमारी व्यवस्था यही इंतजाम बना रही है.

GWALIIOR TIMES MORENA NEWS said...

aap aisa hi likiye desh prem ke liye

संगीता पुरी said...

गांव के देश भारत में गांव की यह स्थिति सोचनिया है . जब तक गांव में रोजगार के अवसर नहीं मिलेंगे , देश को तरक्की के रस्ते पर ले जन सम्भव नहीं है.

Atul Chauhan said...

उत्तराखन्ड के राजनेताओं को अपनी जेब भरने से फुरसत मिले तो सोचें।

आशुतोष उपाध्याय said...

इन घरों में कभी मनुष्यों की वह प्रजाति रहती थी, जिसका अपने परिवेश, आबोहवा और संसाधनों से खून का रिश्ता था। इसलिए इन्हें मारकर मौज काटने की बर्बरता उनमें नहीं थी। लेकिन ये घर आगे ऐसे भी नहीं रहेंगे। प्राकृतिक संसाधनों को `कमाऊ माल´ समझने वाली शक्तियां टिड्डीदल की तरह इन पर काबिज हो जाएंगी। संभव है इन घरों को छोड़ाने वालों के ही कुछ वंशज टिडि्डयों तब्दील हो जाएं। कई तो हो भी चुके हैं, तभी तो पहाड़ की हवा में आज उनकी गंध को आप कहीं भी महसूस कर सकते हैं। इनमें कुछ चुनावी पंख लगा कर उड़ते हैं तो कुछ ने अपने पांव में दलाली के चक्के फिट कर लिए हैं। पहाड़ों को प्यार करने वाले पता नहीं कैसे अपने धार-ओलारों से ही बिखुड़ गए!