Tuesday, December 11, 2007

भाजपा का नया प्रहसन

अचानक भाजवा को बुद्ध की तरह ग्यान प्राप्त हो गया। उसे लगा कि लाल कृष्ण आडवानी को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। लोग चौंक गए क्योंकि अभी तो लोकसभा के चुनाव में भी लगभग दो वर्ष दूर हैं। वामपंथियों की तमाम बंदर घुडकियों के बाद भी वे समर्थन वापस लेंगे ऎसा लगता नहीं। फिर भाजपा ने ऎसा क्यों किया।
वैसे आडवानी विपक्ष के नेता है और संसदीय लोकतंत्र में सरकार के पतन के बाद उसे ही प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलता है। मान लो चुनाव हो रहे होते और भाजपा सत्ता में आती तो वहीं प्रधानमंत्री होते लेकिन ऎसा भी नहीं है। फिर भी उन्हें प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। इससे तो लगता है कि विपक्ष का नेता पद भी भाजपा के लिए एक मुखौटा था जो आडवानी लगाए हुए थे। चुनाव हुए भी तो भाजपा के अपने बलबूते सत्ता में आने की संभावना नहीं है उसे मजबूरन दूसरी पार्टियों के सहयोग की जरुरत होगी तब उन सहयोगियों को आडवानी मंजूर भी होंगे अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे चुनाव के बाद संसदीय दल ही नेता का चुनाव करता है और वह सरकार बनाने का दावा राष्टूपति से करता है। बहुमत का विश्वास होने पर उसे प्रधानमंत्री बनाया जाता है। भाजपा ने यह घोषणा कर संसदीय दल की बैठक को भी बेइमानी बना दिया है। इससे उसके संसदीय परंपराओ में विश्वास का भी पता चलता है। संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं किया जाता बल्कि जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है और वे ही अपने संसदीय दल के नेता का चयन करते हैं।
अगर यह ग्यान गुजरात चुनावों को ध्यान में रखकर किया है तब भी जनता से छलावा ही है। यह इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि गुजरात में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं और आडवानी का चुनाव क्षेत्र गांधीनगर गुजरात मे ही है। तब भी यह गलत है। गुजरात की जनता के सामने मुख्यमंत्री के दावेदार को रखा जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री का बे क्या करेंगे। यह जनता से एक धोखा नहीं तो क्या है।
इस पूरे प्रहसन का हमारे लोकतंत्र में कोइ अर्थ है। इतना उतावला भाजपा क्यों दिखा रही है।

Saturday, December 1, 2007

महान लोकतंत्र का शोक दिवस

बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन को सच के प‌क्ष में बालने की सजा सुना दी गइ। सुकरात से लेकर आज तक हर सच कहने वाले को समाज के यथा स्थितिवादियों ने इसी तरह से उत्पीडित किया है। आज भी विश्व के तमाम जगहों पर सच के पक्ष में खडे लोगों को सजा देने का काम जारी है। लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शर्मिदगी का दिन है। यह शर्मिदगी इसलिए भी ज्यादा है कि यह धत कर्म उन दलों ने किया है जो खुद को धर्मनिरपेक्षता सबसे बड़ा अलम्बरदार सीपीएम और सीपीआइ ने किया है। कांग्रेस और दूसरे मध्म मार्गी दलों को क्या कहें जिनका आधार ही जाति या धर्म है। यह सब किया गया क्योंकि कुछ अल्पसंख्यकों को तसलीमा नसरीन का लेखन पसंद नहीं था। कम्युनिस्टों को कहा जाता है कि वे नास्तिक होते है लेकिन जब वोट की बात आती है तो उन्हें धर्म का महत्व समझ में आ जाता है। वामपथी बडे दावे से कहते है कि हम तीस सालों से बंगाल में सत्ता में है लेकिन किस कीमत पर कामरेड। आपके इलाके में इतना कट्टरवाद इस दौरान जनता की बैग्यानिक चेतना बढाने को आपने किया क्या। एक वामपंथी सीपीएम ने तसलीमा को कोलकाता से निकाला तो दूसरा वामपथी सीपीआइ के नेता बडी बेशर्मी से घोषणा करता है कि तसलीमा ने विवादित अंश हटा दिए हैं। क्या यही लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी है जो संविधान में किसी को दी है।
तसलीमा ने जो लिखा वह एक राजनीतिक व्यवस्था में अल्पसंख्कों की दयनीय हालत को उजागर करने वाला था। यह इतना बुरा कैसे हो गया कि एक मीहला को जान बचाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें मजबूर दिखाइ दे रही है। यह भारतीय बुद़्धजीवी वर्ग के मुंह पर सत्ता का तमाचा है कि वह एक लेखिका के सम्मान की रक्षा नहीं कर सक। याद रखना चाहिए कि जो तसलीमा के साथ हुआ है वह किसी के साथ भी हो सकता है उस वक्त कहीं कोइ नहीं होगा जो सच के पक्ष में खडा हो सके। कट्टरवाद अब आदमखोर हो चुका है अभी कइयों की जान खतरे में है।